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________________ हुआ हैं। मूर्छा को परिग्रह कहा गया हैं यह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग, द्वेषादि भाव से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय इन्द्रिय, विषय आदि अन्तरंग परिग्रह है और धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह हैं। आश्रव के कारण है। इन कारणों से ही हिंसा होती है- प्रमत्तयोगात्, प्राणव्यपरोपणं हिंसा। यह हिंसा कर्म है और कर्म परिग्रह है। आचारांगसूत्र कदाचित, प्राचीनतम् आगम ग्रन्थ है। जिसका प्रारम्भ ही शस्त्रपरीक्षा से होता है। शस्त्र का तात्पर्य है हिंसा। हिंसा के कारणों की मीमांसा करते हुए वहां स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति वर्तमान जीवन के लिए, प्रशस्ति, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख प्रतिकार के लिए तरह-तरह की हिंसा करता हैं। द्वितीय अध्ययन लोकबिजय में इसे और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि. सांसारिक विषयों का संयोजन प्रमाद के कारण होता है। प्रमादी व्यक्ति रातदिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में अर्थार्जन का प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर और अर्थलोलुपी चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त अर्थार्जन में ही लगा रहता है। अर्थार्जन में संलग्न पुरुषः पुनः-पुनः शस्त्रसंहारक बन जाता है। परिग्रही व्यक्ति में न तप होता है, न शान्ति और न नियम होता है। यह सुखार्थी होकर दुःखी बन जाता है। इस प्रकार संसार का प्रारम्भ आसक्ति से होता है और आसक्ति ही परिग्रह है। परिग्रह का मूल साधन हिंसा है, झूठ, चोरी कुशील उसके अनुवर्तक हैं। और परिग्रह उसका फल है। अत: जैन संस्कृति मूलत: अपरिग्रहवादी संस्कृति है जिसका प्रारम्भ अहिंसा के परिपालन से होता हैं। महावीर ने अपरिग्रह को ही प्रधान माना है। आधुनिक युग में मार्क्स साम्यवाद के प्रस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने लगभग वही बात कही है जो आज से २५०० वर्ष पूर्व तीर्थङ्कर महावीर कह चुके थे। तीर्थङ्कर महावीर ने संसार के कारणों की मीमांसा कर उनसे मुक्त होने का उपाय भी बताया पर मार्क्स आधे रास्ते पर ही खड़े रहे। दोनों महापुरुषों के छोर अलग-अलग थे महावीर ने “आत्मतुला' की कहकर समता की बात कही और हर क्षेत्र में मर्यादित रहने का सुझाव दिया। परिमाणव्रत वस्तुतः सम्पत्ति का आध्यात्मिक विकेन्द्रीकरण है और अस्तित्ववाद उसका केन्द्रीय तत्त्व है। जबकि मार्क्सवाद में ये दोनों तत्त्व नहीं हैं। ___ परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है आज व्यक्तिनिष्ठा कर्तव्यनिष्ठा को चीरती हुई स्वकेन्द्रित होती चली जा रही हैं। राजनीति और समाज में भी नये-नये समीकरण बनते चले आये हैं। राजनीति का नकारात्मक और विध्वंसात्मक स्वरूप किंकर्तव्य विमूढ़-सा बन रहा है। परिग्रही लिप्सा से आसक्त असामाजिक तत्त्वों के समक्ष हर व्यक्ति घुटने टेक रहा है। डग-डग पर असुरक्षा का भान हो रहा है। ऐसा लगता
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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