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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०७)
___ आचार्य वसुनन्दि अर्थ- परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप से नरकगति होती है। उस नरक गति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है।
परिग्रह से मनुष्य के मन की तृप्ति असम्भव है। अग्नि को संस्कृत भाषा में "अनलम्” कहते है। समास विच्छेद करने पर दो शब्द बनते हैं न अलम्, अलम् यानि तृप्ति। बहुत से काष्ठ व घृतादि का प्राशन करके भी अग्नि तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार अति संचय करने पर भी परिग्रही मन सन्तुष्ट नहीं होता। अत: साधक को प्रयत्नपूर्वक अतिकांक्षा का हनन करना होगा, जिससे वह साधना निर्विघ्न कर सके ताकि केवलज्ञान और परम सुख प्राप्त कर सके।
देशव्रती श्रावक किन्हीं भी वस्तुओं का सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकता तो उसे प्रत्येक वस्तु की मर्यादा अवश्य बना लेना चाहिये। मर्यादायें हो जाने से उसकी मूर्छा, उसका ममत्व सीमित पदार्थों में बंध जायेगा जिससे उसके व्रत निर्दोष बनेंगे
और कर्मबन्ध भी अत्यल्प होगा, परिणामस्वरूप वह शीघ्र ही परमपद को प्राप्त कर लेगा।।१५३।।
गुणव्रत-वर्णन
दिग्वतं (गुणव्रत) का लक्षण पुव्वुत्तर-दक्षिण-पच्छिमासु काऊण जोयणपमाणं। . परदो' गमणणियत्ती दिसि विदिसि गुणव्वयं पढम।। २१४।। -. अन्यवार्थ-(पव्वत्तर-दक्षिण-पच्छिमासु) पूर्व-उत्तर-दक्षिण-पश्चिम दिशाओं में, (जोयणपमाणं) योजनों का प्रमाण, (काऊण) करके, (परदो) उससे आगे, (दिसि-विदिसि) दिशाओं-विदिशाओं में, (गमणणियत्तो) गमन नहीं करना, (पढम) . प्रथम, (गुणव्वयं) गुणव्रत है। - अर्थ- पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में योजनों का प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशाओं में गमन नहीं करना, यह प्रथम दिग्वत नाम का गुणव्रत है।
व्याख्या- पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऐशान, उर्ध्व १. ब. परओ. २. दिग्देशानर्थदण्डविरति: स्याद् गुणव्रतम्।
सा दिशाविरतिर्या स्याद्दिशानुगमनप्रमा।। १४१ । । गुणम् क्षा. ।।