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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०८)
आचार्य वसुनन्दि और अधो आदि दिशा-विदिशाओं में “मैं सौ योजन ही जाऊँगा" अथवा एक हजार कि०मी० ही जाऊँगा आदि प्रमाण करना, दिशाओं में जाने की सीमा करके उस की हुई सीमा से आगे गमन-आगमन नहीं करना प्रथम दिग्वत नाम का गुणव्रत है। ___तीनगुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को शीलव्रत कहा जाता है। व्रतशुद्धि हेतु शीलव्रतों का पालन करना अत्यन्त अनिवार्य है।
आचार्य अमृतचन्द्र सूरि का कथन द्रष्टव्य है - परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ।। पु०सि० १३६।। ।
अर्थ – जिसप्रकार नगरों की रक्षा परकोटे करते हैं, उसी प्रकार निश्चय से व्रतों की रक्षा शील करते हैं। इसलिए व्रत परिपालनार्थ शीलों का पालन करना चाहिए।
अब प्रथम ही यहाँ पर दिग्व्रत के सम्बन्ध में चर्चा करते हैं - आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - .. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्नयास्यामि। ' इति संकल्पो दिग्वत मामृत्यगुणाय विनिवृत्यै ।।६८र० श्रा० ।।
अर्थ- मृत्युपर्यन्त सूक्ष्मपाय की निवृत्ति के लिये दिशाओं की मर्यादा करके 'इसके बाहर नहीं जाऊँगा' इस प्रकार का संकल्प करना दिग्व्रत है।
आ० स्वामिकार्तिकेय कहते हैं - जह लोहणासणटुं संग पमाणं हवेइ जीवस्स। सव्व दिसाण पमाणं तह लोहं णासए णियमा।।३४१।। जं परिमाणं कीरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं। उवओगं जाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढमं ।।३४२।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अर्थ – जैसे लोभ का नाश करने के लिए जीव परिग्रह का परिमाण करता है वैसे ही समस्त दिशाओं का परिमाण भी नियम से लोभ का नाश करता है। अत: अपनी आवश्यकता को समझकर सुप्रसिद्ध सब दिशाओं का जो परिमाण किया जाता है वह पहला गुणव्रत है।
चौपाई (हिन्दी) में स्पष्ट शब्दों में पं० दौलतराम जी लिखते हैं - पूरब आदि दिशा चउ जानो, ईशानादि विदिश चउ मानो। . अध ऊरध मिलि दस दिशि होई, करे प्रमाण व्रती है सोई ।।