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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०९) आचार्य वसनन्दि शीलवान् व्रत धारक भाई, जाके दरशनते अघ जाई। या दिशिकों एतो ही जाऊँ, आगे कबहुं न पाँव धराऊँ।। या विधि सों जु दिशा को नेमा, करै सुबुद्धि परिव्रत प्रेमा। मरजादा न उलंघे जोई, दिग्व्रत धारक कहिये सोई।।क्रियाकोष।। आ० श्रुतसागर सूरि तत्त्वार्थवृत्ति में लिखते हैं – “तासु दिक्षु प्रदिक्षु च हिमाचलविन्ध्यपर्वादिकम् अभिज्ञानपूर्वकं मर्यादा कृत्वा परतो नियमग्रहणं दिग्विरतिव्रतमुच्यते।"(७/२१) अर्थात् उन दिशाओं और विदिशाओं में हिमाचल, विन्ध्याचल, आदि प्रसिद्ध स्थानों की अभिज्ञानपूर्वक मर्यादा करके उससे बाहर जाने का मरणपर्यन्त के लिये त्याग करना दिग्विरति व्रत कहलाता है। लाटी संहिता में कहा है - पूर्वस्यां दिशि गच्छामि यावद्गंगाम्बुकेवलम् । तबहिर्वपुषाऽनेन न गच्छामि सचेतनः ।।६/११३।। अर्थ – दिशाओं की मर्यादा करके मैं इससे बाहर नहीं जाऊँगा, जब तक सचेतन हूँ। पूर्वादि दिशा और गंगादिक नदी तक जाऊँगा आदि मर्यादायें दिग्व्रत हैं। दिव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरत यह तीन गुण तत्त्वार्थसूत्र के आधार से गिनाये जाते हैं। सर्वार्थसिद्धि महापुराण, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सोमदेव उपाकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगति उपासकाचार, पद्मनंदि पंचविंशतिका, और लाटी संहिताकार भी इन्हें स्वीकार करते हैं। स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा और सागार धर्मामृत ये रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुगामी हैं। आ०कुन्दकुन्द दिशि-विदिशि प्रमाण, अनर्थदण्डत्याग और भोगोपभोगपरिमाण को गुणव्रत कहते हैं, ऐसा ही कथन पद्मपुराण और भावसंग्रह में भी है। शील के मुख्य दो भेदों में गुणव्रत के तीन और शिक्षाव्रत के चार भेद माने गये है। गणना में किसी भी ग्रन्थ में मतभेद नहीं है मात्र विषयगत भेद ही प्राप्त होता है।।२१४।। देशव्रत का लक्षण . वय- भंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण। कीरई गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ।।२१५।।२ १. इ.झ.ब. विइय. २. यत्र व्रतस्य भंग: स्याद्देशे तत्र प्रयत्नतः। गमनस्य निवृत्तिा सा देशविरतिर्मता।। १४१।। गुणभू श्रा. ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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