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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१०) आचार्य वसुनन्दि
अन्वयार्थ- (जम्मि देसम्मि) जिस देश में, (वयभंगकारणं होइ) व्रतभंग का कारण उपस्थित होता है, (तत्थ णियमेण) उसमें नियम से (जो), (गमणणियत्ती) गमन निवृत्ति, (कीरइ) की जाती है, (तं) उसे, (विदिय) द्वितीय, (गुणव्वयं जाण) गुणव्रत जानो।
अर्थ- जिस देश में रहते हुए व्रत-भंग का कारण उपस्थित हो, उस देश में नियम से जो गमन निवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशव्रत नाम का गुणव्रत जानना चाहिए। व्याख्या- आचार्य समन्तभद्र कहते हैं -
देशावकाशिकंस्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य। प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य।।९२।। गृहहारिंग्रामाणं क्षेत्रनदीदावयोजनानां च। देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः।।९३।। संवत्सरमुतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च। . .
देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधिं प्राज्ञाः । ।रत्न० श्रा०९४।। अर्थ-दिग्व्रत में निश्चित किये गये विशाल देश का काल परिमाण करके प्रतिदिन अणुव्रतों को लेकर सीमित करना देशावकाशिक व्रत है। गृहों से शोभित ग्राम, क्षेत्र, नदी, जंगल या योजन का प्रमाण ये देशावकाशिक की सीमा होती है। वर्ष, ऋतु, अयन, मास, चतुर्मास, पक्ष और नक्षत्र ये देशावकाशिक के काल की मर्यादा होती है। मर्यादाओं के बाहर स्थूल और सूक्ष्म पांचों पापों का त्याग हो जाने से देशावकाशिक के द्वारा महाव्रतों की सिद्धि होती है।
आचार्य सोमदेव ने भी सोमदेवउपासकाध्ययनांग (४४९-४५१) में आचार्य समन्तभद्र के कथन की पुष्टि की है। आ० अमृतचन्द्र सूरि का भी यही अभिप्राय जान पड़ता है।
आचार्य समन्तभद्र के श्लोक (र०क० ९२) जैसा एक श्लोक श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र (३/८४) की टीका में कहा है -
दिग्व्रते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः।
दिने रात्रौ च देशावकाशिकव्रतमुच्यते ।।३/८४।। अर्थ – दिग्व्रत में किये हुए परिमाण को पुनः संक्षेप में करना अर्थात् मर्यादा के अन्दर रात्रि/दिन/प्रहर/घंटा आदि की मर्यादा करना देशावकाशिक व्रत है।।२१५ ।।