SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१२) आचार्य वसुनन्दि अर्थ - अपने तथा अपने सम्बन्धियों के किसी मन, वचन, काय सम्बन्धी प्रयोजन के बिना पापोदेश, हिंसादान, दुःश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या के द्वारा प्राणियों को पीड़ा देना अनर्थदण्ड है, और उसका त्याग अनर्थदण्ड व्रत माना गया है। जिन कार्यों को करने का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं होता, वे कार्य अनर्थ हैं. उनसे विरक्त होना अनर्थदण्ड व्रत है। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः । ततो विरतियानर्थदण्डविरतिः । (सर्वार्थसिद्धि, ७/२१) अर्थात् उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है वह अनर्थ दण्ड है इससे विरत होना अनर्थदण्ड विरतिव्रत है । इसके पांच भेद हैं। यथा पापोपदेश हिंसा दानापध्यान दुःश्रुतीः पञ्च । प्राहुः प्रमादचयामनर्थदण्डानदण्ड धराः ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ७५ ) अर्थ- पापों के नहीं धारण करने वाले निष्पाप आचार्यों ने अनर्थदण्ड के पांच भेद कहे है। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या। क. पापोपदेश विरति — “पापस्य उपदेशः पापोपदेशः " (पाप का उपदेश, पापोपदेश है। इस तरह यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास का प्रयोग है। आचार्य प्रभाचन्द्र के अनुसार पापोपार्जन हेतुरुपदेश: पापोपदेशः / पाप के उपार्जन हेतु जो उपदेश दिया जाता है, वह पापोपदेश है। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका- ७६ ) जिन कार्यों को करने से पापों का उपार्जन होता है, यथा- अमुक देश में प्राणी सस्ते में मिल जायेंगे, वहाँ से उन्हें खरीदकर अमुक देश में बेचो तो तुम्हें लाभ होगा इस तरह के उपदेश को पापोपदेश कहते हैं। आ० समन्तभद्र ने लिखा है कि तिर्यक्क्लेशवणिज्या हिंसारम्भ प्रलम्भनादीनाम्। कथाप्रसङ्ग प्रसवः स्मर्तव्य पाप उपदेशः । । अर्थ— तिर्यञ्चों को क्लेश पहुँचाने का उन्हें बंध करने आदि का उपदेश देना, तिर्यञ्चों के व्यापार करने का उपदेश देना, हिंसा, आरम्भ और दूसरों को छल कपट आदि से ठगने की कथाओं का प्रसंग उठाना ऐसी कथाओं का बार-बार कहना, यह पापोपदेश अनर्थदण्ड है। पाप के कारणभूत उपदेश को न देना पापोपदेश विरति है । ख. हिंसादान विरति— हिंसा की वस्तुयें देना हिंसादान है। आ० समन्तभद्र के अनुसार
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy