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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१३) आचार्य वसुनन्दि
परशुकृपाण खनित्र ज्वलनायुधशृङ्गि शृंखलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ७७) अर्थ- हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, आग, अस्त्र-शस्त्र, विष और सांकल आदि के देने को ज्ञानी जन हिंसादान नामका अनर्थदण्ड कहते है।
अत: हिंसोपकरण नहीं देना चाहिये, यही हिंसादान विरति है।
ग. अपध्यान विरति-अप यानि कत्सित-खोटा, ध्यान यानि चिन्तन। किसी की हार हो जाये, किसी की धनहानि हो जाये, ऐसा चिन्तन अपध्यान है। . आ. समन्तभद्र ने कहा है कि -
वधबन्धच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्चपरकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ।।
__ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार- ७८) अर्थ- द्वेष से किसी प्राणी के वध, बन्ध और छेदनादिका चिन्तन करना तथा राग से परस्त्री आदि का चिन्तन करना, इसे जिनशासन में अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड कहा गया है।
अपध्यान से विरक्त होना, अपध्यान विरति है।
घ. दुःश्रुति विरति- दुर उपसर्ग कुत्सित अर्थ का प्रतिपादक है। श्रति का अर्थ शास्त्र है, जो शास्त्र राग-द्वेष और मोह का वर्धन करते हैं। विषय-कषायों की इच्छा को बढ़ाते हैं, वे कुशास्त्र हैं, उनका पठन-पाठन दुःश्रुति है। आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि -
आरम्भ सङ्ग साहस मिथ्यात्व द्वेष रागमदमदनैः । चेत: कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ।।
(रत्नकरण्ड- श्रावकाचार ७९) ___ अर्थ-आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और काम भाव के प्रतिपादन द्वारा चित्त को कलुषित करने वाले शास्त्रों का सुनना दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड है।
कुशास्त्रों का पठन-पाठन का त्याग करना, दुःश्रुति विरति है।. ङ. प्रमादचर्या विरति- प्रमादस्य चर्या (प्रमादपूर्वक चर्या करना, प्रमादचर्या है)