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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५) आचार्य वसुनन्दि देखा जाता है। जैसे जो पुरुष एक दिन में अनेक बार भोजन करता है, वही पुरुष कभी विपरीत भावना के वश से एक बार भोजन करता है। कोई पुरुष एक दिन के अन्तर से भोजन करता है और कोई पुरुष सप्ताह, पक्ष, मास तथा छह मास आदि के अन्तर से भोजन करता है। दूसरी बात यह भी है कि अरहन्त भगवान् के जो बुभुक्षा सम्बन्धी पीड़ा होती है और उसकी निवृत्ति भोजन के रसास्वादन से होती है तो यहाँ पूँछना यह है कि वह रसास्वादन उनके रसना इन्द्रिय से होता है या केवलज्ञान से? यदि रसना इन्द्रिय से होता है, ऐसा माना जाये तो मतिज्ञान का प्रसंग आने से केवलज्ञान का अभाव हो जायेगा. और यदि केवलज्ञान से रसास्वादन माना जाये तो फिर भोजन की आवश्यकता ही क्या है? क्योंकि केवलज्ञान के द्वारा तो तीन लोक के मध्य में रहने वाले दूरवर्ती रस का भी अच्छी तरह अनुभव हो सकता है। एक बात यह भी है कि भोजन करने वाले अरहंत के केवलज्ञान हो भी कैसे सकता है, क्योंकि भोजन करते समय वे श्रेणी से पतित होकर प्रमत्तविरत (छठा) गुणस्थानवर्ती हो जावेंगे। जब अप्रमत्त विरत साधु, आहार की कथा करने मात्र से प्रमत्त हो जाते हैं, तब अरहंत भगवान् भोजन करते हुए भी प्रमत्त न हों, बड़े आश्चर्य की बात है?? अगर अरहंत भोजन करने भी लग जायें तो केवलज्ञान के द्वारा मांस आदि अशुद्ध द्रव्यों को देखते हुए वे भोजन कैसे कर सकते हैं, इससे अन्तराय का प्रसंग भी आता है जिससे उनका अन्तराय कर्म नष्ट हुआ नहीं माना जायेगा। और जब अल्पशक्ति धारक श्रावक भी मांसादि पंदार्थों को देखने से अन्तराय करते हैं तब अनन्तवीर्य के धारक अरहन्त भगवान् क्या अन्तराय नहीं करेंगे? यदि नहीं करते तो उनमें गृहस्थ से भी हीन शक्ति का प्रसंग आता है। - यदि अरहंत भगवान् के क्षुधा सम्बन्धी पीड़ा होती है तो उनके अनन्त सुख किस प्रकार हो सकता है? जबकि वे नियम से अनन्त चतुष्टय के स्वामी होते हैं। जो अन्तराय से सहित है उसके ज्ञान के समान सुख की अनन्तता नहीं हो सकती। अर्थात् जिस प्रकार अन्तराय सहित ज्ञान में अनन्तता नहीं होती उसी प्रकार अन्तराय सहित अरहन्त के सुख में अनन्तता नहीं हो सकती। यदि कहो कि "क्षुधा पीड़ा ही नहीं है" तो प्रत्यक्ष से विरोध आता है। लोक में एक उक्ति प्रसिद्ध है “क्षुधा समा नास्ति शरीरवेदना' अर्थात् क्षुधा के समान शरीर की कोई दूसरी पीड़ा नहीं है। उपर्युक्त सम्पूर्ण तथ्यों के आधार पर हम देखते हैं कि अरहन्त के क्षुधा, तृषा आदि कोई भी दोष नहीं होता। ऐसे ही आप्त (अरहन्त) के द्वारा कहे हुए वचन प्रमाणित होते हैं, क्योंकि वे विद्यमान पदार्थों के प्ररूपक होते हैं। अर्थात् सम्पूर्ण लोक में जो
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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