SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६) आचार्य वसुनन्दि) चराचर पदार्थ हैं उन सब का कथन जिनेन्द्र कथित शास्त्रों में प्राप्त होता है, अन्यत्र नहीं। इसका विशेष स्पष्टीकरण प्रमेयकमल मार्तण्ड, अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि दार्शनिक ग्रन्थों में किया गया है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में यह भी मतभेद का एक विषय रहा है।।८-९।। सात तत्त्वों पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जीवाजीवासव-बंध-संवरो णिज्जरा तहा मोक्खो। एयाइं सत्त तच्चाई, सद्दहंतस्स' सम्मत्तं ।।१०।।.. अन्वयार्थ- (जीवाजीवासव-बंध-संवरो णिज्जरा) जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, (तहा) तथा, (मोक्खो ) मोक्ष, (एयाइं सत्त तच्चाई) ये सात तत्व (कहलाते) हैं, (इनका), (सहहंतस्स) श्रद्धान करना, (सम्मत्त) सम्यक्त्व (कहलाता) है।।१०।। अर्थ- सम्यग्दर्शन का कथन करते हुए, कथित परिभाषा में से आप्त और आगम का निरूपण कर चुकने के बाद यहाँ पर आचार्य सात. तत्त्वों के सम्बन्ध में चर्चा करते हैं जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इन पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। - व्याख्या- यहाँ पर एक बार फिर आचार्य देव भव्यों के लिए सम्यक्त्व की परिभाषा स्वतन्त्र रूप से कह रहे हैं। अगर इस गाथा का सम्बन्ध छठवीं गाथा से न जोड़ा जाये तो यहाँ स्वतन्त्र रूप से सम्यग्दर्शन के लक्षणं का प्रतिपादन हुआ है। अगर आप कहें कि इससे तो पुनरुक्ति दोष हुआ, सो ठीक नहीं; क्योंकि आचार्य यहाँ प्राथमिक भव्य जीवों को उपदेश दे रहे है। प्रारम्भिक अवस्था में जब कोई बात स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आती तो गुरु उसे पुन:-पुन: अलग-अलग प्रकार से वही बात समझाते हैं। यहाँ पर आचार्य ने एक साथ दो कार्य सिद्ध किये हैं। प्रथम तो पूर्वकथित गाथा का स्पष्टीकरण और द्वितीय आचार्य उमास्वामी का अनुसरण करते हुए पुन: सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है। शङ्का – तत्त्व किसे कहते हैं? तथा सात तत्त्वों के सम्बन्ध में स्पष्ट समझावें? समाधान - तत्त्व शब्द के अर्थ को हम पहली गाथा की टीका में कह चुके हैं। सात तत्त्वों के सम्बन्ध में भी यहाँ विशेष स्पष्ट नहीं करेंगे, क्योंकि आगे ग्रन्थकार स्वयं उनका कथन करेंगे। हां! उनके लक्षणों को जरूर यहाँ संक्षिप्त रूप से कहते हैंजीव का लक्षण चेतना है, जो ज्ञानादिक के भेद से अनेक प्रकार की है। जीव से विपरीत १. ध. सद्दहणं.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy