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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४) आचार्य वसुनन्दि आहारक हैं।" ऐसा आगम का वाक्य है और दूसरे पक्ष में देवों के शरीर स्थिति के साथ व्यभिचार आता है, क्योंकि देवों के कवलाहार के अभाव होने पर भी शरीर की स्थिति देखी जाती है। यदि यहाँ कोई कहे कि – १. नोकर्माहार, २. कर्माहार, ३. कवलाहार, ४. लेपाहार, ५. ओज आहार और ६. मानसाहार इनमें से देवों के मानसिक आहार होता है, जिससे उनके शरीर की स्थिति बनी रहती है तो इसका उत्तर यह है कि केवली भगवान् के भी नोकर्माहार होता है जिससे उनके शरीर की स्थिति बनी रहती है। यदि यहाँ कोई कहे कि हमारा और आप्त का शरीर एक जैसा है अत: हमारे समान उनके भी आहार होना चाहिये? यदि शरीर की तुलना से आप्त के आहार होना मानते हो तो जिस प्रकार उनके शरीर में पसीना आदि का अभाव है उसी प्रकार आपके शरीर में भी होना चाहिये। यदि कहो कि यह तो भगवान् का अतिशय है; तो इसका उत्तर होगा कि जब आप्त भगवान् के पसीना आदि के अभाव का अतिशय माना जाता है तब भोजन के अभाव का अतिशय क्यों नहीं हो सकता? दूसरी बात यह है कि हम अपने से आप्त की तुलना करने लग जायें तो हमारे इन्द्रियजनित ज्ञान की तरह ही उनका ज्ञान ठहरेगा, जिससे उनके अतीन्द्रियज्ञान असम्भव हो जायेगा और तब सर्वज्ञता के लिये ही जलांजलि देनी पड़ेगी!! ___ यदि आप कहो कि हमारे और उनके ज्ञान में ज्ञानत्व की अपेक्षा समानता होने पर भी उनका ज्ञान अतीन्द्रिय है तो इसका उत्तर यह है कि हमारे और उनके शरीर-स्थिति की समानता होने पर भी उनकी शरीर स्थिति आहार (कवलाहार) बिना क्यों नहीं हो सकती? अरहंत भगवान के असाता वेदनीय का उदय होने से बभक्षा- भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है, इसलिये भोजनादिक में उनकी प्रवृत्ति होती है? यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि जिस वेदनीय के साथ मोहनीय कर्म सहायक रहता है वही बुभुक्षा उत्पन्न करने में समर्थ होता है। जिनके मोह कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है ऐसे अरहंत को भोजन की इच्छा कैसे हो सकती है? यदि ऐसा न माना जाये तो फिर रिरंसा-रमण करने की इच्छा भी उनको मानना पड़ेगी और सुन्दर स्त्री आदि के सेवन का प्रसंग आ जायेगा। जिसके आने पर आप्त की वीतरागता ही न रहेगी। यदि यह कहो कि, विपरीत भावनाओं के वश से रागादिक की हीनता का अतिशय देखा जाता है, जिससे केवली के रागादिक का ह्रास अपनी चरम सीमा को प्राप्त हो जाता है। इसलिये उनकी वीतरागता में बाधा नहीं आती?- यदि ऐसा है तो उनके भोजनाभाव की परम प्रकर्षता क्यों नहीं हो सकती, क्योंकि भोजनाभाव की भावना से भोजनादिक में भी ह्रास का अतिशय
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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