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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३)
आचार्य वसुनन्दि अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद, ये अठारह दोष कहलाते हैं, जो आत्मा इन दोषों से रहित है वही आप्त कहलाता है। तथा उसी आप्त के वचन प्रमाण है, क्योंकि वे विद्यमान अर्थ के प्ररूपक हैं।
व्याख्या- सम्भवत: आचार्य वसनन्दि ने यहाँ पर आचार्य श्री समन्तभद्र का अनुसरण करते हुए अठारह दोषों का स्पष्ट उल्लेख किया है। आप्त को अठारह दोषों से विरहित बताने के बाद आचार्य वसुनन्दि ने उन अठारह दोषों को स्पष्ट किया है; किन्तु आचार्य श्री समन्तभद्र ने क्षुधा, तृषा, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मृत्यु, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह- ये ग्यारह नाम गिनाकर तथा अन्य सात दोषों के ग्रहणार्थ 'च' शब्द रखा है। फिर भी उनके (रत्नकरण्ड श्रावकाचार) टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने सभी दोषों का स्पष्टीकरण निम्न प्रकार किया -
क्षुधा भूख को कहते हैं, तृषा प्यास को कहते हैं, जरा वृद्धावस्था को कहते हैं, वात,पिस तथा कफ के विकार से होने वाले रोगों को व्याधि कहते हैं। कर्मों की अधीनता से चारों गतियों में उत्पत्ति होना जन्म कहलाता है, एक शरीर की आयु पूर्ण हो जाने को मृत्यु कहते हैं, डर को भय कहते हैं, इसके इहलोक, परलोक, अत्राण, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक भय की अपेक्षा सात भेद हैं, जाति, कुल, ज्ञान आदि के गर्व को स्मय, मद अथवा अहङ्कार कहते हैं। इष्ट वस्तुओं में प्रीति रूप परिणाम होना राग है, अनिष्ट वस्तुओं में अप्रीति रूप परिणाम होना द्वेष है, शरीरादिक परवस्तुओं में अहं बुद्धि करना मौह है। इष्ट वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिये तथा
अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिये परिणामों में जो विकलता • होती है उसे चिन्ता कहते हैं। अनिष्ट वस्तुओं का समागम होने पर जो अप्रसन्नता होती
है, उसे अरति कहते हैं। मद, श्वेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिये नींद लेना निद्रा है। इसके निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पाँच भेद हैं। आश्चर्य रूप परिणाम को विस्मय कहते हैं, नशा को मद कहते हैं, पसीना को स्वेद कहते हैं, और थकावट को खेद कहते हैं। इन सभी अठारह दोषों से रहित आप्त होते हैं।
शङ्का– भूख (क्षुधा) के अभाव में भोजन नहीं होता और बिना भोजन के अधिक काल तक शरीर की स्थिति सम्भव नहीं, फिर देशोन कोटि वर्ष पूर्व तक आप्त के शरीर की स्थिति रह सकती है, यह भोजन के अभाव में सम्भव नहीं। अत: आप्त को आहार अवश्य होता होगा जिससे क्षुधा दोष का भी सद्भाव मानना भी अनिवार्य हो जायेगा।
समाधान – आप्त भगवान् के आहारमात्र सिद्ध किया जा रहा है या कवलाहार? प्रथम पक्ष में सिद्ध साधनता दोष आता है, क्योंकि “सयोग केवली पर्यन्त के जीव १. र.श्रा. श्लोक सं. ६.