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वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०९)
आचार्य वसुनन्दि) अन्वयार्थ- (कामंधो) कामांध, (माणी) मानी, (कुलजो) कुलीन, (सूरो वि) शूरवीर मनुष्य भी, (णीचाणं पि) नीचों की भी, (दासत्तणं कुणइ) दासता करता है, (नेस्सा कएण) वेश्या के द्वारा किये हुए, (बहुगं) बहुत, (अवमाणं) अपमानों को, (सहइ) सहता है।
भावार्थ- कामेन्द्रिय के वशीभूत होकर मनुष्य स्त्री का भोग करना चाहता है, ऐसा इन्द्रिय लम्पटी जब किसी वेश्या आदि की चाहना करता है तब वह अपनी मान-मर्यादा को भी ताक में रख देता है। मानी, कुलीन और शूरवीर मनुष्यों को भी वेश्या के चक्कर में फंसकर नीच लोगों की दासता स्वीकार करना पड़ती है अर्थात् उनकी नौकरी करनी पड़ती है। वह धूर्त वेश्या के द्वारा किये गये कई अपमानों को सहता है।।९१।। .
जे मज्जमंसदोसा वेस्सा गमणम्मि होंति ते सव्वे । पावं पि तत्थ हिटुं पावइ णियमेण सविसेसं ।। ९२।।
अन्वयार्थ (जे मज्जमंस दोसा) जो दोष मद्य मांस में हैं, (ते सव्वे) वे सभी, (वेस्सा गमणम्मि) वेश्यागमन में, (होंति) होते हैं, (पावं पि तत्थ हिटुं पावइ) (इससे) उन्नका पाप तो पाता ही है, (णियमेण) नियम से, (सविसेस) कुछ विशेष (पाप के फल को भी पाता है)।
भावार्थ-जो-जो दोष मद्य और मांस के सेवन में होते हैं वे सभी दोष वेश्यागमन में भी होते हैं। इसलिये वेश्या सेवी मद्य और मांस सेवन के पाप फल को तो प्राप्त होता ही है, किन्तु वेश्या सेवन के विशेष अधम पाप को भी नियम से प्राप्त होता है अर्थात् उसे तिगुना-चौगुना पाप का भागीदार होना पड़ता है।।९२।।
. पावेण तेण दुक्खं पावइ संसार-सायरे घोरे । ... तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयणकाएहिं ।। ९३।।
अन्वयार्थ- (तेण पावेण) उस पाप से (जीव), (घोरे) भयानक, (संसार-सायरे) संसाररूपी समुद्र में, (दुक्खं पावइ) दुःखों को पाता है, (तम्हा) इसलिए, (वेस्सा) वेश्या का, (मण-वयकाएहिं) मन-वचन-काय से, (परिहरियव्वा) त्याग करना चाहिए।
अर्थ- उस वेश्या सेवन करने से उत्पन्न पाप के कारण यह जीव घोर संसार-सागर में भयानक दुःखों को प्राप्त करता है। नरकों में तो लोहे की गर्म बनावटी स्त्री से आलिंगन कराया जाता है जिससे बेचारे नारकी का सारा-शरीर जल जाता है
१. ब. वेसा
२.
ब. वेसा.