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________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१०८) आचार्य वसुनन्दि रत्तं णाऊणं णरं सव्वस्सं हरइ वंचण सएहिं। काऊण मुयइपच्छा पुरिसं चम्मट्ठि परिसेसं ।।८९।। अन्वयार्थ- (रत्तं णाऊणं णरं) मनुष्य को अनुरक्त जानकर (वेश्या), (सएहिं वंचण) सैकड़ों प्रवंचनाओं से, (सव्वस्स) (उसका) सर्वस्व, (हरइ) हर लेती है, (पुरिस) पुरुष को, (चम्मट्ठि परिसेस) चर्म और हड्डी शेष, (काऊण) करके, (पच्छा मुयइ) बाद में छोड़ देती है। भावार्थ- वेश्या मनुष्य को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ों प्रवंचनाओं से उसका सर्वस्व हर लेती है, और पुरुष को अस्थि चर्म परिशेष करके अर्थात् जब . उसमें हाड़ और चाम ही अवशेष रह जाता है, तब उसको छोड़ देती है। जब मनुष्य की सम्पूर्ण धन-दौलत और सम्पत्ति वेश्या के पास पहुंच जाती है तथा मनुष्य के शरीर में खून, मांस, वीर्य आदि कम हो जाता है तब वेश्या उसे मरी हुई मक्खी के समान छोड़ देती है।।८९।। पभणइ पुरओ एयस्स सामी मोत्तूण णत्थि मे अण्णो। .. उच्चइ अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि।।९।। अन्वयार्थ- (एयस्स पुरओ) एक के सामने, (पभणइ) कहती है (तुम्हें), (मोत्तण) छोड़कर, (अण्णो मे सामी णत्थि) कोई दूसरा मेरा स्वामी नहीं है, (पुणो) पुन:, (अण्णस्स) अन्य के (सामने), (उच्चइ) कहती है, (और भी), (बहुयाणि) बहुत प्रकार से, (चाडूणि) चापलूसी (करेइ) करती है। भावार्थ- वह वेश्या एक पुरुष के सामने कहती है कि तुम्हें छोड़कर अर्थात् तुम्हारे सिवा मेरा कोई स्वामी नहीं है, तुम ही मेरे लिए सब कुछ हो। इसी प्रकार वह अन्य किसी विट पुरुष से भी ऐसा ही कहती है कि तुम ही मेरे स्वामी हो, यह धन सम्पत्ति और शरीर तक तुम्हें समर्पित है। तुम बहुत सुन्दर हो, तुम जैसे बलवान् पुरुष को पाकर में धन्य हो गई, तुम्हारे लिये तो मैं अपनी जान भी दे सकती हूँ इत्यादि अनेक चाटुकारियां अर्थात् खुशामदी बातें करती है।।९० ।। माणी कुलजो सूरो वि कुणइ दासत्तणं पि णीचाणं। वेस्सा' कएण बहुगं अवमाणं सहइ कामंधो।।९१।।। १. झ. नाऊण. ३. झ. ब. तं ण. ५. ब. वेसा. २. ४. ब. सव्वं सहरइ. झ. बुच्चइ.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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