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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७६) कुष्ठादि रोगजनित दुःख अण्णो उ पावरोएण' बाहिओ णयर - बज्झदेसम्मि । अच्छइ सहाय रहिओ ण लहइ सघरे वि चिट्ठेउं ।। १८७ । । तिसओ वि भुक्खिओ' हं पुत्ता मे देहि पाणमसणं च । · एवं कूवंतस्स वि ण कोइ वयणं च से देइ ।। १८८ ।। तो रोय- सोयभरिओ सव्वेसिं सव्वहियाउ ५ दाऊण । दुक्खेण मरइ पच्छा धिगत्थु मणुयत्तणमसारं । । १८९ ।। अण्णाणि एवमाईणि जाणि दुक्खाणि मणुयलोयम्मि । दीसंति ताणि पावइ वसणस्स फलेणिमो जीवो । । १९० ।। आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ — (अण्णो उ) कोई अन्य मनुष्य, (पावरोएण) पाप रोग से, (बहिओ) पीड़ित होकर, (णयर - बज्झदेसम्मि) नगर के बाह्य प्रदेश में, (सहायरहिओ) असहाय होकर, (अच्छइ) रहता है, (सघरे वि) अपने घर में भी, (ण चिट्ठेउ लहइ) नहीं ठहरने पाता है। (तिसओ वि भुक्खओहं ) मैं प्यासा और भूखा है, (पुत्ता) बच्चो, (मे पाणमसणं च देहि मुझे पानी और भोजन दो, ( एवं कूवंतस्सवि) इस प्रकार चिल्लाते हुए भी, (से कोइ वयणं चण्ण देइ) उसको कोई वचन भी नहीं देता है। (तो) तब, (रोय सोयभरिओ) रोग-शोक से भरा हुआ वह, (सव्वेसिं) सभी को, (सव्वहियाउ दाऊण) सभी प्रकार के अहितों (कष्टों) को देकर, (पच्छा) बाद में, (दुक्खेण मरइ) दुःख से मरता है, (ऐसे ), ( मणुयत्तणमसारं धिगत्यु) असार मनुष्य जीवन को धिक्कार हो, ( एवमाईणि) इनको आदि लेकर, (अण्णाणि) अन्य, (जाणि) जितने, (दुक्खाणि) दु:ख, (मणुयलोयम्मि) मनुष्यलोक में, (दीसंति) दिखते है, (ताणि) उनको, (वसणस्स) व्यसन के, (फलेण) फल से, (इमो जीवो) यह जीव, (पावइ) पाता है। भावार्थ— संसार में मनुष्यगति में कई दुःखों को भोगना पड़ता है। कोई मनुष्य पापरोग अर्थात् कुष्टरोग से पीड़ित होकर नगर के बाह्य प्रदेश में एक ओर पड़ा रहता है, न उसका वहाँ कोई सहायक ही होता है और न ही रक्षक अपितु रोग के कारण वह अपने घर में भी नहीं रह पाता । १. कुष्टरोगेणेत्यर्थ. २. पभुक्खिओ. ३. ब. देह. ४. कूजंतस्सई. ब. सवहियाउ, सर्व हितान् इत्यर्थः .
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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