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( वसुनन्दि-श्रावकाचार
(१७५)
आचार्य वसुनन्दि
बाद बचा हुआ भोजन) खाते हुए भी दु:खी होता है और दुःखमय जीवन जीता
रहता है।
आचार्य गुणभद्र कहते हैं - 'बाल्ये वेत्सि न किंचिदप्यपरिपूर्णाङ्गो हितं वाहितं ।' (आ० ८९) अर्थात् प्राणी बाल्यावस्था में शरीर के पुष्ट न होने से कुछ भी हित-अहित को नहीं जानता है। अपमानजनक और अहितकर कार्य भी कर डालता है। भावप्राभृत में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - कि हे मुनिवर ! तू ज्ञान रहित शिशुकाल में विष्टा आदि अपवित्र वस्तुओं के मध्य लेटा है तथा उसी बाल्य अवस्था की प्राप्ति के कारण तूने अनेक बार अशुचि वस्तु का भक्षण किया है। देखिए प्रस्तुत गाथा
सिसुकाले य अयाणे असुईमज्झम्मि लोलि ओसि तुमं । असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण । । ४१ । ।
स्वामी कुमार रचित कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में भी एक गाथा इस आशय को स्पष्ट करने
वाली है
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बालो वि पियर चत्तो पर-उच्छिट्ठेण वड्ढदे दुहिदो ।
एवं जायण सीलो गमेदि कालं महा महादुक्खं । । ४६ ।।
मार्ता-पिता के वियोगजन्य दुःखों को भी व्यसनी जीव प्राप्त होते हैं । । १८५ ।। पापात्मा को भीख भी नहीं मिलती
पुव्वं दाणं दाऊण को वि सधणो जणस्स जहजोगं ।
पच्छा सो धणरहिओ ण लहइ कूर पि जायंतो । । १८६ । ।
अन्वयार्थ — (पुव्वं) पूर्वभव में, (जणस्स) मनुष्यों को, (जहजोगं) यथायोग्य, (दाणं दाऊण) दान देकर, (को वि) कोई भी, (सधणो) धनवान् हुआ, . (पच्छा) बाद में, (सो) वह, (धणरहिओ) धन रहित हो गया (तो), (जायंतो) मांगने पर; (कूर पिं) कूर (कौर) भी, (ण लहइ) नहीं पाता है।
भावार्थ — यदि कोई मनुष्य पूर्वभव में मनुष्यों को यथायोग्य धन, भोजन, भूमि आदि दान देकर इस भव में धनवान् परिवार में उत्पन्न होकर धनवान् हुआ, किन्तु बाद में पापोदय के कारण जब उसका सम्पूर्ण धन नष्ट हो जाता है और भरपेट भोजन का भी ठिकाना नहीं रहता है तब उसे मांगने पर कौर (रोटी का टुकड़ा अथवा भात) भी नहीं मिलता है। वास्तव में वर्तमान की सम्पन्नता और विपन्नता हमारे ही पूर्वकृत कर्मोदय का फल है । । १८६ ।।