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________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१७७) आचार्य वसुनन्दि - मैं बहुत प्यासा हूँ, मैं बहुत दिनों से भूखा हूँ; बच्चों! मुझे पानी एवं भोजन दो, मुझे खाने-पीने को दो; इस प्रकार चिल्लाते हुए भी उसको कोई वचन से भी आश्वासन नहीं देता, पानी और भोजन देना तो बहुत दूर की बात है। तब भयङ्कर रोग से बुरी तरह पीड़ित रोग और शोक से भरा हुआ वह सब लोगों को नानाप्रकार के कष्ट देता है और बाद में स्वय भी आर्त रौद्र परिणाम करते हुए; दुःख से मरता है। जिस मनुष्य जीवन में विभिन्न प्रकार के दुःख-शोक और कष्ट भरे पड़े हैं उसे धिक्कार हो। इन ऊपर कहे हुए दुःखों को आदि लेकर और भी अन्य दुःख जो मनुष्य लोक में दिखाई देते हैं, वे सब व्यसनों का फल हैं। व्यसन सेवन करने से भयङ्कर पाप का बंध होता है परिणामस्वरूप जीव मनुष्य गति को पाकर भी सुखी नहीं हो पाता, अपितु दुःखों को ही भोगता है। आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में कहते हैं - 'व्यापत्पर्वमयं विरामविरसं मूलेऽप्यभोग्योचितं । बिष्वक्षुत्क्षतपातकुष्ठकुथिताधुग्रामयैश्छिद्रितम् ।। मानुष्यं घुण भक्षितेक्षुसदृशं नामैकरम्यं पुनः। " निःसारं परलोक बीज मचिरात्कृत्वेह सारी कुरु ।।८१।। अर्थ- आपत्तियों रूप पोरों से निर्मित, अन्त में नीरस, मूल में भी उपभोग के अयोग्य तथा सब और से भूख, क्षतपात (घाव) कोढ और दुर्गन्ध आदि तीव्र रोगों से छेद युक्त की गई ऐसी यह मनुष्य पर्याय घुनों से खाये हुए गन्ने के समान केवल नाम से ही रमणीय है। तू इस निःसार पर्याय को परभव. का बीज करके सारभूत कर ले। इसी में बुद्धिमानी है।।१९०।। देवगतिदुःख-वर्णन व्यसन फल से देवगति में दुःख किंचुवसमेण पावस्स कह वि देवत्तणं वि संपत्तो। तत्थवि पावइ दुक्खं विसणज्जिय कम्मपागेण।।१९१।। अन्वयार्थ- (कह वि) किसी प्रकार से भी, (पावस्स) पाप के, (किंचवसमेण) किंचित उपशमन से, (देवत्तणं वि) देवपना भी, (संपत्तो) प्राप्त हुआ (तो), (तत्थ वि) वहां पर भी, (विसणज्जियकम्मपागेण) व्यसन से उपार्जित कर्म के फल से, (दुक्खं) दुःखों को, (पावइ) पाता है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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