________________
(वसुनन्दि-श्रावकाचार
(८०)
आचार्य वसुनन्दि नहीं है। क्योंकि एक अक्षर से भी हीन मन्त्र विष की पीड़ा को नष्ट नहीं करता।
जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ, उरस्थल और मस्तक ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से ही मनुष्य अपना काम करने में समर्थ होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्व, अमूढ़दृष्टित्व, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं। इन आठ अंगों के द्वारा ही सम्यग्दर्शन की पूर्णता होती है और सम्यग्दर्शन संसार की संतति के छेदने रूप अपने काम में समर्थ होता है। जब तक मनुष्य शंकाशील रहता है, तब तक वह किसी काम में आगे नहीं बढ़ता परन्तु शंका के दूर होते ही उसका पैर आगे बढ़ने लगता है। दो पैरों में सबसे पहले दाहिना पैर आगे बढ़ता है इसलिए निःशंकित अंग को मनुष्य के दाहिने पैर की उपमा दी जाती है। मनुष्य का बायाँ पैर किसी आकांक्षा के बिना ही दाहिने पैर के पीछे चल देता है इसलिए नि:काक्षित अंग के लिए बायें पैर की उपमा दी जाती है। शरीर के मल-मूत्रादि पदार्थों को साफ करने के लिए मनुष्य का बायाँ हाथ किसी ग्लानि के बिना आगे आता है इसलिए निर्विचिकित्सित अंग के लिए बायें हाथ की उपमा दी जाती है। शरीर के किसी अंग पर कोई आपत्ति आती है तो उसके निवारणार्थ मनुष्य का दाहिना हाथ सबसे पहले उस अंग की सहायता करता है। इसलिए स्थितिकरण अंग के लिए दाहिने हाथ की उपमा दी जाती है। खोटे कार्यों से बचने के लिए मनुष्य की पीठ सहायक होती है अर्थात् खोटे कार्यों की ओर पीठ देने से मनुष्य पाप से बच जाता है इसलिए खोटे कार्यों से मानसिक, वाचनिक और शारीरिक असहयोग कराने वाले अमूढ़दृष्टित्व अंग के लिए पीठ की उपमा दी जाती है। जिस प्रकार मनुष्य अपने नितम्ब को प्रकट करने में लज्जा का अनुभव करता है, उसे प्रकट नहीं करता, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव किसी के दोषों को प्रकट करने में लज्जा का अनुभव करता है उसे वह प्रकट नहीं करता, इसलिए उपगृहन अंग के लिए नितम्ब की उपमा दी जाती है। मनुष्य का जिसके साथ स्नेह होता है वह उसे अपने उर:स्थल (छाती) से लगाता है इसलिए वात्सल्य अंग के लिए उर:स्थल की उपमा दी जाती है। और जिस प्रकार मनुष्य अपना सिर उठाकर अर्थात् मुख दिखाकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उसी प्रकार प्रभावना अंग के द्वारा सम्यग्दृष्टि मनुष्य दूसरों को समीचीन धर्म की ओर आकर्षित करता है इसलिए प्रभावना अंग के लिए शिर-मस्तक की उपमा दी जाती है। अपना-अपना कार्य करने के लिए सम्यग्दर्शन के आठों अंग आवश्यक हैं। वैसे तो निःशंकितत्त्व आदि आठों अंग निज और पर की अपेक्षा दो-दो प्रकार के हैं परन्तु विशेषता की अपेक्षा जब विचार करते हैं तो निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्व और अमूढ़दृष्टित्व इन चार अंगों का स्व से सम्बन्ध अधिक जान पड़ता है और उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन चार का सम्बन्ध समष्टि-समाज से अधिक जान पड़ता है।