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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (८१)
आचार्य वसुनन्दि) व्यक्तिगत स्वकीय उन्नति के लिए प्रारम्भिक चार अंगों का होना अत्यन्त आवश्यक है और समष्टि-समाज सम्बन्धी उन्नति के लिए उपगूहन आदि चार अंगों का होना आवश्यक है। जिस समाज में एक-दूसरे के दोष देखे जाते हैं, कोई किसी की सहायता नहीं करता, कोई किसी के सुख-दुःख में सम्मिलित होकर आत्मीयता प्रकट नहीं करता
और न समीचीन कार्यों का प्रसार करता है वह समाज बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है परन्तु इसके विपरीत जिस समाज में दोष देखने की अपेखा गण देखे जाते हैं, विपत्ति पड़ने पर एक-दूसरे का सहयोग किया जाता है। सबके साथ आत्मीयभाव रखा जाता है और समीचीन कार्यों का प्रसार किया जाता है वह समाज संसार में चिरकाल तक जीवित रहता है।।५६।।
सामान्य श्रावकाचरण
.. दर्शन (सामान्य) श्रावक का लक्षण पंचुम्बर- सहियाइं सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ ।
सम्मत्त-विसुद्ध-मई सो दंसण सावओ भणिओ।।५७।।
अन्वयार्थ- (सम्मत्त-विसुद्ध-मई) सम्यग्दर्शन से जिसकी बुद्धि विशुद्ध है, (जो) (ऐसा) जो जीव, (पंचुंबर-सहियाइं) पांच उदुम्बरफल सहित, (सत्त वि विसणाई विवज्जेइ) सातों व्यसनों को भी छोड़ता है, (सो) वह, (दसण सावओ भणिओ) दर्शन श्रावक कहा गया है।।५७।। - भावार्थ- जिसके मन में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई है अर्थात् जो सम्यग्दर्शन सहित है और ज्ञान में भी निर्मलता प्राप्त हुई है, ऐसा जो जीव पांच उदुम्बर फलों सहित सप्त व्यसनों का त्याग करता है वह दर्शन श्रावक अर्थात् सामान्य श्रावक कहा जाता है। .... इस गाथा के चिन्तन से ऐसा ज्ञात होता है जैसे कि ग्रन्थकार ने पांच उदुम्बरों को एक संख्या में लेकर तथा सप्त व्यसनों को २ से ८ संख्या में लेकर श्रावक के आठ मूल गुणों का कथन किया हो। इस सन्दर्भ का आगे गाथा क्र० २०५ में खुलासा करेंगे।।५७।। उदुम्बर फलों के नाम
उंबर-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाण-तरु पसूणाई।
णिच्चं तससंसिद्धाइ२ ताइं परिवज्जियव्वाइं ।।५८।। १. द. पंपरीय.
२. पं. संहिद्धाइं.