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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (८२)
आचार्य वसुनन्दि. ___ अन्वयार्थ- (उंबर-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाणं,तरुपसूणाई) ऊंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर फल, संधानक (अचार), वृक्षों के फूल (ये सब), (णिच्चं) हमेशा, (तससंसिद्धाइं) त्रस जीवों से संसक्त रहते है, (ताई) इसलिये उनका, (परिवज्जियाई) त्याग करना चाहिये।।५८।।
अर्थ- ऊँमर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकरफल, अचार, वृक्षों के फूल आदि में हमेशा त्रसजीव रहते हैं, अत: इनका त्याग करना चाहिए।
व्याख्या- जैनाचार में उम्बर, बड़ (बरगद), पीपल, कठूमर और पाकर ये पांच फल हैं जो बड़े-बड़े वृक्षों पर उगते हैं और सर्वथा अभक्ष्य (न खाने योग्य) होते हैं। इनमें त्रस जीव हमेशा रहते हैं तथा दिखते भी हैं।
यहाँ सम्भवतः ग्रन्थकार ने “पिंपरीय" पद में 'य' अलग लिखा होना चाहिये जिससे पांचवें फल का भी निषेध प्रस्तुत किया जा सके।
संधानक अर्थात् अचार जिसे सभी बड़े स्वाद से खाते हैं लगभग चौबीस घण्टे में अखाद्य हो जाता है। उसमें त्रस जीव पड़ जाते हैं। कई बार तो सफेद फफून्द भी पड़ जाती है जो स्वयं एकेन्द्रिय है और त्रस जीवों की उत्पत्ति में आधार बनती है, अत: अचार भी त्याज्य है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूखे आम, आवला आदि को योग्य मसाले के साथ बिना गीला किये तेल में डालकर अचार तैयार करते हैं तो उसकी मर्यादा अधिक है।
___ वृक्षों के फूल खाना या उनकी साग बनाने का भी निषेध है, क्योंकि इन सबमें हमेशा असंख्यात जीव विद्यमान रहते हैं। इन्हें खाने से महा हिंसा का दोष लगता है तथा आचरण के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़ता है। अत: इनको पूर्णरूपेण छोड़ना चाहिये।।५८।। सप्त व्यसनों के नाम
जूयं मज्जं मंसं वेसा-पारद्धि-चोर-परयारं।
दुग्गइ-गमणस्सेणादि हेउभूदाणि पावाणि।।५९।।
अन्वयार्थ- (जूयं मज्जं मंसं वेसा-पारद्धि-चोर-परयारं) जुआ, मद्य, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी, परदार, (एदाणि) ये सब, (दुग्गइ-गमणस्स) दुर्गति गमन के, (हेउभूदाणि) कारण भूत, (पावाणि) पाप हैं।। ५९।।
१. द्यूतमध्वामिषं वेश्या खेटचौर्यपराङ्गना।
सप्तैव तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत सुधी।।१४।। गुण० श्राव०.