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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
आचार्य वसुनन्दि अर्थ- जुआ, मद्य, मांस, वेश्या, चोरी, परदार-सेवन ये सब दुर्गति के कारणभूत पाप (व्यसन) हैं।
व्याख्या- बाजी लगाकर किसी भी प्रकार का खेल खेलना जुआ है। दो इन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय जीवों के शरीर के कलेवर को मांस कहते हैं। जिसे बनाने में अनन्त जन्तु-जीवों की हिंसा होती है; जो मनुष्य को शारीरिक एवं आध्यात्मिक रूप से हानि पहुंचाती है तथा आत्मा में मोह (भ्रम) रूप दशा उत्पन्न करती है वह मद्य (शराब) है। जिस स्त्री का स्वामी एक व्यक्ति नहीं होता वह वेश्या है। तलवार- बन्दूक या अन्य किसी प्रकार से मनोरंजन अथवा स्वार्थ के लिये किसी जीव की हिंसा करना शिकार है। किसी की पड़ी हुई, रखी हुई अथवा विस्मृत हुई वस्तु को उठाना या स्वामित्व करना चोरी है। जिस स्त्री का कोई एक पुरुष स्वामी है वह परदारा है। यह सातों व्यसन नियम से दुर्गति के कारण हैं। अत: प्रत्येक भव्यात्मा को चाहिये कि वह इन महा अनिष्ट कारक व्यसनों से बचे।
व्यसन का सामान्य अर्थ होता है- वह खोटी आदत जिसे जल्दी न छोड़ा जा सके और जिसका परिणाम भयानक दुःख एवं अपयश करने वाला हो। दुःख का पर्यायवाची एक नाम व्यसन भी है। अत: कह सकते हैं जो व्यसन हैं, वह दुःख रूप ही हैं। .
शङ्का- वेश्यागमन और परस्त्री सेवन में क्या अन्तर है?
समाधान- वेश्यागमन शब्द का अर्थ है वेश्या के यहाँ जाना अर्थात् जो वेश्या के यहाँ जानां मात्र है वह भी व्यसन की श्रेणी में आता है। चाहे कोई वेश्या का सेवन करे या न करे, किन्तु अगर वेश्या के यहाँ आता-जाता भी है तो भी वह लोक में महा निन्दा/अपयश को प्राप्त होता है, किन्तु परस्त्री सेवन में ऐसा नहीं है। परस्त्री अर्थात् रिश्तेदारों, मित्रों एवं सम्बन्धियों के यहाँ आने-जाने में कोई दिक्कत नहीं है। उन परिवारों के सदस्यों से वार्ता करने में भी दोष नहीं है, किन्तु किसी स्त्री विशेष के प्रति आकर्षित होकर उसका सेवन करना। यह व्यसन की श्रेणी में आता है। इन दोनों में इतना ही अन्तर समझना चाहिये। क्योंकि परस्त्री सेवन और वेश्यागमन को एक मानने में कई दोष आते हैं। यहां परस्त्री सेवन से परपुरुष सेवन भी उपलक्षितार्थ है। इन सात व्यसनों के सम्बन्ध में विशेष स्पष्ट आगे ग्रन्थकार स्वयं करेंगे।।५९।।
जुआ खेलने से हानियां जूयं खेलंतस्स हु कोहो माया माण-लोहा' या
एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो बहुगं ।।६०।। १. झ. 'लोहो' इति पाठः.