SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (८४) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (जूयं खेलंतस्स हु) जुआ खेलने वाले पुरुष के निश्चित ही, (कोहो-माया-माण य लोहा) क्रोध, मान, माया और लोभ, (एए) ये (कषायें), (तिव्या हवंति) तीव्र होती हैं, (जिससे जीव), (बहुगं पावं पावइ) बहुत पाप को प्राप्त करता है।।६०।। भावार्थ- जो व्यक्ति जुआ अथवा लाटरी खेलता है निश्चित रूप से वह कभी हारता है और कभी जीतता भी है; हार-जीत की स्थिति में वह साम्य नहीं बना पाता और भयानक क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों से घिर जाता है, जिनसे महान् पाप को ही एकत्रित करता है।।६०।। पावेण-तेण जर-मरण वीचिपउरम्मि दुक्ख-सलिलम्मि। . चउ-गइ-गमणावत्तम्मि हिंडइ भव-समुद्दम्मि।।६१।। अन्वयार्थ- (तेण पावण) उस पाप के कारण, (जन्म-जर-मरण-वीचिपउरम्मि) जन्म, जरा, मरण रूपी प्रचुर तरंगों वाले, (दुक्ख सलिलम्मि) दुःखरूपी जल से भरे हुए, (चउ-गइ-गमणावत्तम्मि) चतुर्गति-गमन रूप आवर्तों से युक्त (भव-समुद्दम्मि) संसार रूपी समुद्र में, (हिंडइ) घूमता है।।६१।। भावार्थ- जो चार कषायों के कारण से पाप उत्पन्न हुआ था उस पाप के कारण से यह जीव जन्म, जरा और मरण रूपी बहुत तरंगों वाले, दुःख रूपी जल से भरे हुए तथा देव, मनुष्य, तिर्यश्च और नारकी रूप पर्यायों रूपी आवर्तों (भंवरों) से संयुक्त होकर संसाररूपी समुद्र में घूमता है।।६१।। . . , तत्थ वि दुक्ख मणंतं छेयण- भेयण-विकत्तणाईणं। पावइ सरण-विरहिओ जूयस्स फलेण सो जीवो।।६२।। अन्वयार्थ- (जूयस्स फलेण सो जीवो) वह जीव जुआ के फल से, (तत्थ वि) और भी, (सरण-विरहिओ) शरण रहित हो करके, (छेयण-भेयण-विकत्तणाईणं) छेदन,भेदन विकर्तनादि के, (अणंत दुक्खं पावइ) अनन्त दुःख पाता है।।६२।। भावार्थ- जुआ खेलने वाला जीव जुआ के फल से और भी भयानक कष्टों को भोगता है। वह निस्सहाय या अशरण होकर छेदन-भेदन कर्त्तन आदि के अनन्त दुःखों को पाता है। छेदन अर्थात् छेद किया जाना, भेदन अर्थात् शरीर के आरपार छेद कर देना और कर्त्तन अर्थात् शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देना आदि महान कष्ट इस चूत . (जुआ) के कारण भोगने पड़ते हैं।।६२।। १. व. 'विरहियं' इति पाठः.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy