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वसुनन्दि-श्रावकाचार
(८५)
गणे इg - मित्तं ण गुरुं मायरं पियरं वा ।
जूवंधो वुज्जाई कुणइ अकज्जाई बहुगाई । । ६३ । ।
आचार्य वसुनन्दि
अन्वयार्थ — (जूवंधो) जुआ खेलने में अन्धा हुआ मनुष्य, (ण गणेड़ इट्ठ मित्तं) इष्ट मित्रों को कुछ नहीं गिनता है, (ण गुरुं) न गुरु को, ( ण य मायरं पियरं वा) और न ही माता वा पिता को ही वह कुछ गिनता है, (किन्तु), (बुज्जाइं) स्वच्छन्द होकर, (अकज्जाएं बहुगाईं कुणइ) बहुत से अकार्यों को करता है । । ६३ । ।
भावार्थ- जब मनुष्य जुएँ में मस्त हो जाता है तो वह जुएँ में अन्धा-सा हो जाता है। फिर वह अपने इष्ट मित्रों, गुरु, माता-पिता आदि के मना करने पर भी खेलना तो बन्द नहीं करता अपितु उल्टा अपने पूज्यों का अपमान करने लगता है। वह किसी को कुछ नहीं समझता, सिर्फ में जो कर रहा हूँ वही अच्छा है, इत्यादि सोचकर स्वच्छन्द होकर बड़े-बड़े अकार्यों अर्थात् न करने योग्य कार्यों को भी कर डालता है ।। ६३ ।।
सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ णिल्लज्जो ।
माया वि ण विस्सासं वच्चइ जूयं रमंतस्स ।। ६४ । ।
अन्वयार्थ - (जूयं रमंतस्स) द्यूत में रत रहने वाले मनुष्य का, ( माया वि ण विस्साखं वच्चइ) माता भी विश्वास नहीं करती, (वह जुआरी), (सजणे य परजणे) स्वजन में और परजन में, (देसे वा) देश अथवा परदेश में, (सव्वत्थ) सभी जगह, ( णिल्लज्जो होइ) निर्लज्ज होता है । । ६४ । ।
भावार्थ — जो हमेशा ही द्यूत क्रीड़ा में रत रहने वाला व्यक्ति है उसका विश्वास ग्राम, नगर व देशवासी तो करते ही नहीं, उसका स्वयं का पिता परिवार भी विश्वास नहीं करता, जन्मदात्री माँ भी उससे दूर रहना चाहती है तथा किंचित् भी विश्वास नहीं करती है। ऐसा मनुष्य स्वजनों में, परजनों में, देश-विदेश में अथवा अन्य कहीं भी निर्लज्ज होकर घूमता रहता है ।। ६४ ।।
अग्गिं विस- चोर- सप्पा- दुक्खं थोवं कुणंति' इहलोए ।
दुक्खं जणेइ जूयं णरस्स भव-सय सहस्सेसु । । ६५ । ।
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अन्वयार्थ - ( इहलोए अग्गि-विस- चोर - सप्पा) इस लोक में अग्नि, विष, चोर और सर्प (तो), (थोवं दुक्खं कुणंति) थोड़ा दुःख करते हैं, (किन्तु), (जूयं) जुआ, (णरस्स) मनुष्य के, (भव-सय- सहस्सेसु) लाखों भवों में, (दुक्खं) दुःख को, (जणेइ) उत्पन्न करता है । । ६५ ।।
भावार्थ - सामान्य रूप से संसार में देखा जाता है कि अग्नि, विष, चोर और १. ब. 'करंति' इति पाठ:.