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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (८६) आचार्य वसुनन्दि सर्प भयानक दुःख देने वाले हैं, यह मनुष्य के प्राण तक ले लेते हैं अत: कष्टकर हैं। किन्तु यहाँ आचार्य कहते है कि इन से भी खतरनाक अगर कोई है तो वह है जुआ। अग्नि, विष आदि तो मनुष्य को एक ही भव में दुःख देते हैं, नष्ट करते हैं; किन्तु जुआ मनुष्य को लाखों भवों तक दुःख उत्पन्न करता रहता है।।६५।। अक्खेहि णरो रहिओ ण मुणइ सेसिंदिएहिं वेएइ। जूयंधो ण केण वि जाणइ संपुण्ण करणो वि।।६६।। अन्वयार्थ– (यद्यपि), (अक्खेहि रहिओ णरो) आंखों से रहित मनुष्य, (ण मुणइ) जानता नहीं है, (तथापि), (सेसिंदिएहिं वेएइ) शेष इन्द्रियों से वेदन करता है, (किन्तु), (जूयंधो) जुआ खेलने में अन्धा हुआ मनुष्य, (संपुण्णकरणो वि) सम्पूर्ण इन्द्रियों वाला होकर भी, (केण वि ण य जाणइ) किसी के द्वारा भी नहीं जानता है।।६६।। भावार्थ- जिसकी आँखे नहीं है, ऐसा व्यक्ति अन्धा होकर भी दूसरी इन्द्रियों के माध्यम से वस्तुस्थिति का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, किन्तु जो जुआ खेलने में रत है, जुआ खेलने में ही अधिकांश समय लगाता है, ऐसा द्यूतांध व्यक्ति इन्द्रियों वाला होकर भी अन्धा है, क्योंकि वह अपना और अपने परिवार का हित भी नहीं जान पाता। अपयश होने पर भी वह द्यूत में मस्त रहता है, अत: वह अन्धे से भी अन्धा है।।६६।। अलियं करेइ सवहं जंपइ मोसं भणइ अइ-दुटुं। पासम्मि-बहिणि-मायं सिसुपि हणेइ कोहंघो।।६७।। अन्वयार्थ- (अलियं करेइ सवह) (वह) झूठी शपथ लेता है, (जंपइ मोसं) झूठ बोलता है, (अइ-दुटुं भणइ) अत्यन्त कठोर शब्द कहता है, (कोहंधो) क्रोध में अन्धा होकर, (पासम्मि) पास में स्थित (बिहिणि-मायं सिसुपि) बहिन-माता (और) शिशु को भी, (हणेइ) मारता है। भावार्थ- जुआ खेलने वाला व्यक्ति किसी से धन पाने के लिये झूठी शपथ लेता है, झूठ बोलता है, अत्यन्त कठोर और कर्कश शब्द बोलता है तथा जुएँ में हार जाने पर अथवा और खेलने के लिये धन प्राप्त न होने पर वह क्रोध में अन्धा होकर अपनी पत्नि को तो पीटता ही है, माँ-बहिन और बच्चों को भी नहीं छोड़ता अर्थात् उन्हें भी मारता है।।६७।। ण य भुंजइ आहारं, णि ण लहेइ रत्ति-दिण्णं ति। कत्थ वि ण कुणेइ रइं अत्थइ चिंताउरो' णिच्च।।६८।। १. झ. 'वरो' इति पाठः.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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