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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (८७)
आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ-(वह), (आहारंण भुंजइ) आहार नहीं करता है, (णि ण लहेइ रत्ति दिण्णं ति) रात-दिन नींद नहीं लेता है, (य) और, (कत्थ वि ण कुणेइ रई) किसी से भी स्नेह (प्रेम) नहीं करता है (किन्तु), (णिच्चं) हमेशा, (अत्थइ) धन के लिये, (चिंताउरो) चिन्तातुर रहता है।।६८।।
भावार्थ- चिन्ताओं के कारण जुआरी को भोजन नहीं रुचता और न ही वह भोजन कर पाता है, चिन्तामग्न रहने से बिका हुआ-सा बैठा रहता है न रात को ही नींद लेता है और न ही दिन को और वह परिवार, मित्र, स्त्री, पुत्र आदि किसी से भी स्नेह नहीं करता उसे तो सिर्फ एक चिन्ता रहती है कि धन कहाँ से मिले। वह मन में हमेशा यहीं तन्त्र सोचता रहता है कि धन कैसे और कहां से मिले। धन लुटाते-लुटाते वह स्वयं तो कंगाल हो ही जाता है, परिवार भी भिखारियों-सा जीवन जीने के लिये मजबूर हो जाता है, किन्तु उसकी इस ओर कोई दृष्टि ही नहीं होती। जिस परिवार का पालन-पोषण करना उसका कर्त्तव्य है वह उसको कुछ भी नहीं करता उल्टा मारपीट कर जो चल-अचल सम्पत्ति होती है, उसको और लेकर जुएँ में लुटा देता है और अपने आपको, परिवार को अपने हाथ से बर्बाद करता रहता है।।६८।। . इच्चेवमाइ बहवो दोसे' णाऊण जूयरमणम्मि ।
परिहरियव्वं णिच्वं दंसणगुणमुव्व हंतेण ।।६९।।
अन्वयार्थ– (जूय रमणम्मि) जुआ खेलने में, (इच्चेवमाइ बहवो) इत्यादि बहत, (दोसे णाऊण) दोषों को जानकर के, (दंसण गुण मुव्वहंतेण) दर्शन गुण को धारण करने वाले को, (णिच्चं परिहरियव्व) हमेशा (द्यूत का) त्याग करना चाहिये।
अर्थ- ऊपर कहे हए सम्पर्ण दोषों को जान करके प्रत्येक श्रावक को चाहिये कि वह प्रत्येक प्रकार के जुएँ का त्याग करें। इस भयानक व्यसन से भयभीत होकर इसे त्याग कर सच्चा सम्यग्दृष्टि श्रावक बनना चाहिये। दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक को तो नियम रूप से पूर्णत: इसका त्याग करना ही चाहिये।
- व्याख्या- प्रत्येक पाक्षिक श्रावक को पांच पापों के पूर्ण त्याग का अभ्यास करने की तरह व्यसनों के पूर्ण त्याग का भी अभ्यास करना चाहिये। सात व्यसनों में जुआ सिरमौर है। इसलिये सप्त व्यसनों में इसे प्रथम स्थान दिया गया है। जुआ खेलने वाला व्यक्ति स्वयं तो विपत्तियों में पड़ता ही है अपने परिवार बगैरह को भी विपत्ति में डाल देता है। यहां इतना विशेष जानना कि पाक्षिक (सामान्य) श्रावक मन-बहलावे के लिये बिना शर्त के ताश, चौपड़ एवं कैरम आदि खेल सकता है। प्रारम्भिक श्रावक होने से वह शीघ्र ही जुआ आदि नहीं छोड़ पायेगा। सम्भवत: इसी बात को ध्यान में
१. “झ. 'दोसाः' इति पाठः.