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________________ | वसुनन्दि-श्रावकाचार (८८) आचार्य वसुनन्दि रखकर आचार्य अमृतचन्द्र ने अनर्थदण्ड त्याग नामक गुणव्रत में चूत को दूर से ही छोड़ने की प्रेरणा की है, क्योंकि वह सब अनों की जड़ है, माया का घर है और चोरी तथा झूठ का स्थान है। इनके बिना जुआरी का काम नहीं चलता। किसी ने जुआरी की संसार में जीवन बिताने की दशा का चित्रण करते हुए लिखा है कि उसके पास लंगोटी के सिवाय दूसरा वस्त्र नहीं बचता, निकृष्ट अन्न का भोजन करता है, जमीन पर सोता है, गन्दी बातें करता है, कुटुम्बी जनों से हमेशा लड़ाई-झगड़ा चलता रहता है, दुराचारी उसके साथी होते हैं, दूसरों को ठगना उसका व्यापार होता . है, चोर मित्र होते है, और सज्जनों को वह अपना बैरी समझता है। प्राय: जुए के व्यसनी की ऐसी ही दशा होती है। आचार्य पद्मनन्दि ने जुए की निन्दा करते हुए कहा है - भवनमिदमकीत्तेश्चौर्य वेश्यादि सर्व, व्यसनपतिरशेषापन्निधिः पापबीजम्। . विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा, क इह विशदबुद्धिधूतमङ्गी करोति।। . . (पद्म०पंच०, १/११७) अर्थात् यह जुआ अपयश का घर है, चोरी, वेश्या आदि सब व्यसनों का स्वामी है, सब विपत्तियों का स्थान है, पाप का बीज है, दुःखदायी नरक के मार्गों में अग्रगामी है, ऐसा जानकर कौन बुद्धिमान् जुआ खेलना स्वीकार कर सकता है अर्थात् कोई नहीं।" वास्तव में बुद्धिमानों को तो उस स्थान पर भी नहीं जाना चाहिये जहां जुए जैसे निकृष्ट कार्य (खेल) होते हों।।६९।। मद्यदोष-वर्णन मज्जेण णरो अवसो कुणेइ कम्माणि णिंद णिज्जाइं। इहलोए परलोए अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ।।७०।। अन्वयार्थ- (मज्जेण णरो अवसो) मद्यपान से मनुष्य अवश, (उन्मत्त) होकर, (कणेड कम्माणि णिंद णिज्जाई) निन्दनीय कर्म करता है, (जिससे), (इहलोए-परलोए) इस लोक-परलोक में, (अणंतयं दुक्खं) अनन्त दुःखों का (अणुहवइ) अनुभव करता है।।७०।। भावार्थ- शराब पीने से मनुष्य उन्मत्त अर्थात् पागल जैसा हो जाता है, वह किसी के वश में न रहकर अनेक निन्दनीय कार्यों को भी कर डालता है। फलस्वरुप इसलोक- वर्तमान भव, परलोक-परभव में अनन्त दुःखों को अनुभव करता है, अर्थात् भोगता है।।७०।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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