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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (७९) आचार्य वसुनन्दि L राजा अत्यन्त विरहावस्था को प्राप्त हो गया । तदनन्तर मन्त्रियों ने उसके लिये बौद्ध साधु से याचना की | उसने कहा कि यदि राजा हमारे धर्म को ग्रहण करे तो मैं इसे दे दूँगा | राजा ने वह सब स्वीकृत कर उसके साथ विवाह कर लिया और वह उसकी अत्यन्त प्रिय पट्टरानी बन गई। फाल्गुन मास की नन्दीश्वर यात्रा में उर्विला ने रथयात्रा की तैयारी की।उसे देख उस पट्टरानी ने राजा से कहा कि देव! मेरा बुद्ध भगवान् का रथ इस समय नगर में पहले घूमे। राजा ने कह दिया कि ऐसा ही होगा । तदनन्तर उर्विला ने कहा कि यदि मेरा रथ पहले घूमता है तो मेरी आहार में प्रवृत्ति होगी, अन्यथा नहीं । ऐसी प्रतिज्ञा कर वह क्षत्रिय गुहा में सोमदत्त आचार्य के पास गई। उसी समय वज्रकुमार मुनि की वन्दना-भक्ति के लिये दिवाकर देव आदि विद्याधर आये थे। वज्रकुमार मुनि - यह सब वृतान्त सुनकर उनसे कहा कि आप लोगों को प्रतिज्ञा पर आरुढ़ उर्विला की रथयात्रा कराना चाहिये। तदनन्तर उन्होंने बुद्ध दासी का रथ तोड़ कर बड़ी विभूति के साथ ड्रर्विला की रथयात्रा कराई। उस अतिशय को देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुई बुद्धदासी तथा अन्य लोग जैन धर्म में लीन हो गये । । ५२-५५।। आठ गुणों से युक्त जीव ही सम्यग्दृष्टि है एरिसगुण अट्ठजुयं सम्मत्तं जो धरेइ दिढचित्तो । सो. हवइ सम्मदिट्ठी सद्दहमाणो पयत्ये य । । ५६।। अन्वयार्थ - (जो ) जो जीव, (दिढचित्तो) दृढ़चित्त होकर, पयत्थे सद्दहमाणों) पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ, (एरिसगुण अट्ठजुयं) इस प्रकार आठ गुणों से युक्त, .: (सम्मत्तं धरेइ) सम्यक्त्व को धारण करता है, (सो) वह, (सम्मादिट्ठी) सम्यग्दृष्टि, (हवाइ) होता है ।। ५६ ।। अर्थ — जो जीव दृढ़चित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ इन आठ गुणों से युक्त सम्यक्त्व को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है। व्याख्या– प्रथम तो जो दृढ़चित्त है, जिसका मन चलायमान नहीं है, द्वितीय जीवादिक सम्पूर्ण पदार्थों का जिनाज्ञानुसार श्रद्धान करता है, और तृतीय ऊपर कहे हुए निःशंकितादि आठ गुणों से सहित होकर जो जीव सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) को धारण करता है, वह जीव सम्यग्दृष्टि कहलाता है। आ० समन्तभद्र ने कहा है नांगहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरं न्यूनो निहन्ति विषवेदनां । । रत्न. श्रा० २१ । । अर्थ — अङ्गों से हीन सम्यग्दर्शन संसार की संतति को छेदने के लिए समर्थ
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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