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(. वसुनन्दि- श्रावकाचार
(२१५)
आचार्य वसुनन्दि
अर्थ — मण्डन अर्थात् शारीरिक शृङ्गार, ताम्बूल, गन्ध और पुष्पादिक का जो परिमाण किया जाता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में भोगविरति नाम का प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है।
व्याख्या— मण्डन अर्थात् शारीरिक शृङ्गार, ताम्बूल, गन्ध और पुष्पादिक का जो परिमाण (सीमा) किया जाता है, उसे द्वादशांगान्तर्गत उपासकाध्ययनांग सूत्र में भोगविरति नाम का प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है।
प्रायः सभी आचार्यों ने भोगोपभोग परिमाण व्रत को एक में गिनाया है किन्तु श्रावक प्रतिक्रमण (२/९/१ ) में तथा प्रस्तुत श्रावकाचार में भोगविरति और उपभोग विरति में दो अलग-अलग व्रत गिनाये है ।
भोग की परिभाषा देखिये
भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो।। ( रत्न० श्रा० ८३ ) ।।
इसके टीकाकार आ० प्रभाचन्द्र भी लिखते हैं।
“भुक्त्वा” “परिहातव्य” स्त्याज्य स ‘भोगो' ऽशनपुष्प गंधविलेपन प्रभृतिः ।
जो पदार्थ एक बार भोगकर छोड़ दिये जाते हैं, फिर से काम में नहीं आते ऐसे भोजन, पुष्प, गन्ध तथा विलेपन आदि पदार्थ भोग कहलाते हैं।
सम्पूर्ण भोग्य सामग्रियों की सीमा करना और अन्य अयोग्य सामग्रियों का त्याग कर देना भोग विरति शिक्षाव्रत है ।। २१७ ।।
परिभोग - निवृत्ति शिक्षाव्रत का लक्षण
सगसत्तीए महिला वत्थाहरणाण जं तु परिमाणं ।
तं परिभोयणिवृत्ति' विदियं' सिक्खावयं जाण । । २१८ ।। ३
अन्वयार्थ - (सगसत्तीए) अपनी शक्ति के अनुसार, (महिला) स्त्री-सेवन, (वत्थाहरणाण) वस्त्राभूषणों का, (जं) जो, (परिमाणं) परिमाण किया जाता है, (तं) उसे, (परिभोयणिवृत्ति) परिभोग - निवृत्ति नाम का, (विदियं सिक्खावयं जाण) द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए।
अर्थ — अपनी शक्ति के अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र आभूषणों का जो परिमाण ब. णियत्ती.
१.
स. विइयं ब. वीयं.
३.
उपभोगो मुहुर्भोग्यो वस्त्रस्याभरणादिकः ।
या यथाशक्तितः संख्या सोपभोगप्रभोच्यते । । १४५ ।। गुणभू० श्रा० ।।