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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१६)
आचार्य वसुनन्दि किया जाता है, उसे परिभोग-निवृत्ति नाम का द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए।
व्याख्या- अपनी शक्ति के अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र-आभूषणों का जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग-निवृत्ति नाम का द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए।
आचार्य वसनन्दि ने इस शिक्षाव्रत का नाम उपभोग परिमाण न करके आचार्य उमास्वामी के अनुकरण में परिभोग परिमाण किया है। अन्य कई ग्रन्थकारों ने इसे उपभोग परिमाण शिक्षाव्रत ही नाम दिया है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं -
भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः उपभोगः।।८३।। टीका– य: पूर्वं भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः स उपभोगो वसनाभरण प्रभृति: वसनं
वस्त्रम्।
जो पहले भोगकर फिर से भोगने में आते हैं, ऐसे वस्त्र तथा आभूषण आदि उपभोग कहलाते हैं। अर्थात् जिन किन्हीं भी वस्तुओं का बार-बार उपयोग किया जाता है, उन सबकी सीमा करना परिभोग अथवा उपभोग परिमाण व्रत कहलाता है।।२१८।।
___ अतिथि-संविभाग शिक्षाव्रत का लक्षण . . . अतिहिस्स संविभागो तइयं सिक्खावयं मुणेयव्यं। तत्थ वि पंचहियारा गेया सुत्ताणुमग्गेण ।। २१९।।
अन्वयार्थ– (अतिहिस्स संविभागो) अतिथि के संविभाग को, (तइयं सिक्खावयं मुणेयव्यं) तृतीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए, (तत्थवि पंचहियारा) उसके भी पांच अधिकार, (सुत्ताणुमग्गेण) सूत्रानुसार, (णेया) जानना चाहिए।
अर्थ- अतिथि के संविभाग को तीसरा शिक्षाव्रत जानना चाहिए। इस अतिथि संविभाग के पांच अधिकार उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार (निम्न प्रकार) जानना चाहिए।
व्याख्या- अतिथि के लिए बराबर हिस्से में रखी गई वस्तु को देने वाले द्रव्य-भावों युक्त व्यक्ति को तृतीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए। इसे भी पांच अधिकारों द्वारा आगे उपासकाध्ययनांग सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। आगे आचार्यश्री स्वयं स्पष्ट करेंगे।
अत्यन्त प्राचीन जैन व्याकरण “कातंत्र रूपमाला' के अनुसार “न तिथि:'' स्थित
१. स्वरूप पुण्यार्थमन्यस्य रत्नत्रयसमृद्धये।
यद्दीयतेऽत्र तद्दानं तत्र पश्चाधिकारकम्।।१४६।।