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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२१७) आचार्य वसुनन्दि) पद का समास "नस्य तत्पुरुषे लोप: ।।४६२।।'' से नत्र संज्ञक तत्पुरुष समास में नकार का लोप हो जाता है अत: अतिथि: पद सिद्ध होता है। - अतिथि का लक्षण बताते हुए आ० श्रुतसागर सूरि लिखते हैं-संयमाविराधयन् अतति भोजनार्थं गच्छति यः सोऽतिथिः। अथवा न विद्यते तिथि: प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीयादिका यस्य सोऽतिथि:। अनियतकाल भिक्षागमनमित्यर्थः। अर्थात् संयम की विराधना नहीं करते हुए जो भोजन के लिए भ्रमण करते हैं उनको अतिथि कहते हैं। अथवा जिसके प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया आदि तिथियाँ नहीं हैं, उसे अतिथि कहते हैं। जिनके अनियत काल भिक्षागमन है अर्थात् भिक्षाकाल निश्चित नहीं है, उसे अतिथि कहते हैं। अतिथियों को आहारादिक दान देना अथवा भोजनादिक सामग्री में उनके लिए विभाग करना अतिथि संविभाग है। इस सम्बन्ध में सर्वार्थसिद्धि (७/२१), सो०उपा० (८७८), अमित० श्रा० (६/९५), रत्न० श्रा० (१११-११२) भी द्रष्टव्य हैं।। २१९।। . . अतिथि संविभाग के पांच अधिकार पत्तंतर दायारो दाण विहाणं तहेव दायव्यं। दाणस्स फलं णेया पंचहियारा कमेणेदे।। २२०।। अन्वयार्थ- (पत्तंतर) पात्रों का भेद, (दायारो) दातार, (दाणविहाणं) दान विधान, (दायव्यं) दातव्य, (तहेव) तथा, (दाणस्स फलं) दान का फल, (एदे) यह, (पंचहियारा) पांच अधिकार, (कमेण) क्रम से, (णेया) जानना चाहिए। अर्थ- पात्रों का भेद, दातार, दान-विधान, दातव्य अर्थात् देने योग्य पदार्थ · और दान का फल, ये पाँच अधिकार क्रम से जानना चाहिए। व्याख्या- पात्रों के भेद, दातार की अपेक्षा, दान विधि अथवा विधान की अपेक्षा, दान देने योग्य वस्तु की अपेक्षा और दान फल की अपेक्षा अतिथि संविभाग के पांच अधिकार हैं। आचार्य उमास्वामी ने भी दान के पाँच अधिकार बताये हैं - विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेष: । त० सू०,७/३९।। अर्थ- विधि, देय वस्तु, दाता और पात्र की विशेषता से दान के फल में विशेषता आती है। इस सम्बन्ध में पुरुषार्थ के श्लोक १६८-१६९-१७०-१७१ आदि तथा १. पात्रं दाता दानविधि देयं दानफलं तथा। अधिकारा भवन्त्येते दाने पञ्च यथाक्रमम्।।१४७।।गुणभू श्रा० ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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