________________
वसुनन्दि-श्रावकाचार (३९)
आचार्य वसुनन्दि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाश और काल ये चार द्रव्य नित्य हैं, (क्योंकि इनकी व्यञ्जन पर्याय नहीं है)। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये पांच द्रव्य कारण रूप है। एक जीव द्रव्य कर्ता है। एक आकाश द्रव्य सर्वव्यापी है। ये छहों द्रव्य एक क्षेत्र में रहने वाले हैं, तथापि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं होता है। इस प्रकार छहों मूल द्रव्यों के उपर्युक्त उत्तर गुण जानना चाहिये। इन सभी द्रव्यों को क्रमशः आगे और स्पष्ट करेंगे।
अर्थ पर्याय एवं व्यंजन पर्याय का स्वरूप सुहुमा अवायविसया खण खइणो अत्थ-पज्जया दिट्ठा। . वंजण पज्जाया पुण थूला गिर-गोयरा चिर-विवत्था।। २५।।
अन्वयार्थ- (अत्थ-पज्जया दिट्ठा) अर्थ पर्याय कही गई हैं, (सुहुमा) सूक्ष्म, (अवाय-विसया). अवाय (ज्ञान) विषयक, (खण-खइणो) क्षण-क्षण में बदलने वाली, (पुण) पुनः (किन्तु), (वंजण-पज्जाया थूला) व्यञ्जन पर्याय स्थूल, (गिर-गोयरा) शब्द-गोचर, और (चिरविवत्था) चिरस्थायी हैं।।२५।।
अर्थ- अर्थपर्याय सूक्ष्म हैं, ज्ञान विषयक हैं, शब्द से नहीं कही जा सकती है, क्षण-क्षण में बदलती है। व्यञ्जन पर्याय स्थूल हैं, शब्द गोचर हैं, और चिरस्थायी हैं। - व्याख्या- १. अर्थ पर्याय- पञ्चस्तिकाय एवं ज्ञानार्णवरे ग्रन्थ में कहा हैअर्थ पर्याय सूक्ष्म है, प्रतिक्षण नाश होने वाली है तथा वचन के अगोचर है। और व्यञ्जन पर्यय स्थूल होती है, चिरकाल तक रहने वाली, वचनगोचर व अल्पज्ञानी को भी दृष्टिगोचर होने वाली होती है। अर्थपर्याय और व्यञ्जन पर्यायों में कालकृत भेद है, क्योंकि समयवर्ती अर्थ पर्याय है और चिरकाल स्थाई व्यञ्जन पर्याय है। अर्थात् ऐसा नहीं है कि अर्थ पर्याय किसी दूसरे पदार्थ में हो रही हो और व्यञ्जन पर्याय किसी दूसरे पदार्थ में। दोनों पर्यायें प्रत्येक पदार्थ (संसारी जीव व पुद्गल) में होती हैं पर समयवर्ती अर्थात् एक समय (सेकेण्ड का बहुत छोटा हिस्सा) वाली होने से अर्थपर्याय संसारी जीवों द्वारा देखी और जानी नहीं जा सकती। किन्तु चिरस्थायी अथवा बहुत समय में परिवर्तित होने वाली व्यञ्जन पर्याय हमें दिखाई देती है।
(क) स्वभाव अर्थ पर्याय- आचार्य देवसेन ने 'आलाप पद्धति' में अर्थ पर्याय के स्वभाव अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय ये दोभेद बताये हैं; देखिये सूत्र
अर्थपर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात्।।१६।।
१. पंचास्तिकाय गाथा, १६ टीका २. ज्ञानार्णव ६/४५.