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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३८) आचार्य वसुनन्दि यहाँ पर 'परिणामित्व' पद को ग्रहण कर द्रव्यों की सूचना दी उसके बाद ‘जीवत्व' और 'मूर्तत्व' पद ग्रहण कर जीव एवं पुद्गल द्रव्य को स्वतन्त्र रूप से पुनः कहा गया है।।२२।। द्रव्यों के गुणों का स्पष्टीकरण परिणामि जीव मुत्तं सपएसं एयखित्त किरिया य। णिच्चं कारणकत्ता सव्वगदमियरम्मि अपवेशा।।२३।। . दुण्णि य एवं एयं पंच य तिय एय दुण्णि चउरो य। पंच य एयं एवं मूलस्स य उत्तरे णेयं ।। २४।। (युगलं) अन्वयार्थ - (छह द्रव्यों में से), (दुण्णि परिणामि) (जीव, पुद्गल ये) दो द्रव्य परिणामी हैं, (जीव एयं) एक जीव द्रव्य (चेतन) है, (मुत्तं एय) एक मूर्तिक द्रव्य (पुद्गल) है, (सपएसं पंच) सप्रदेशी द्रव्य पांच (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश) हैं, (य) और, (एयखित्त तिय) एक क्षेत्रावगाही द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश) तीन हैं, (य) और, (खित्त एय) क्षेत्रवान् द्रव्य एक (आकाश) है, (य) और, (किरिया दुण्णि ) दो द्रव्य (जीव, पुद्गल) क्रियावान् हैं, (य) और (णिच्चं चउरो) चार द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) नित्य हैं, (कारण पंच) पांच द्रव्य (जीवरहित) कारण रूप हैं, (य) और (कत्ता एयं) एक (जीव) द्रव्य कर्ता है, (सव्वगदं एय) एक (आकाश) द्रव्य सर्वगत है, (य) और (इयरम्मि अपवेशो) (वे छहीं द्रव्य) एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते हैं। (इस प्रकार), (मूलस्स उत्तरे णेयं) मूल द्रव्यों के उत्तर गुण जानना चाहिये।।२३-२४।। भावार्थ- यहाँ प्रस्तुत दो गाथाओं के पूर्व की गाथा में सामान्य रूप से द्रव्यों की पहचान कराई थी तथा उनके गुणों का संक्षिप्त वर्णन किया था। अब यहां पर आचार्य स्वयं ही छह द्रव्यों के गुणों का स्पष्टीकरण करते हैं। जीव, पद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों में से जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी अर्थात् पर्यायों वाले हैं। एक जीव द्रव्य ही चेतन है बाकी सब अचेतन हैं। एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है बाकी सभी द्रव्य अमूर्तिक (अरूपी) हैं। जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये पांच द्रव्य प्रदेशी अर्थात् प्रदेश वाले हैं, इसीलिये ये बहुप्रदेशी या अस्तिकाय कहलाते हैं, एक काल द्रव्य अप्रदेशी है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक और एक क्षेत्रावगाही हैं। एक आकाश द्रव्य ही क्षेत्रवान् है अर्थात् अन्य द्रव्यों को क्षेत्र (स्थान, अवकाश) देता है। जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं, बाकी सभी निष्क्रिय हैं।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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