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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (४०) आचार्य वसुनन्दि स्वभाव अर्थ पर्याय सभी द्रव्यों में होती है; किन्त विभाव अर्थ पर्याय जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में ही होती है, क्योंकि ये दो द्रव्य ही बन्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। द्रव्य और गुणों में स्वभाव पर्याय भी होती है और विभाव पर्याय भी होती है। जीव में जीवत्वरूप स्वभाव पर्यायें होती हैं और कर्मकृत विभाव-पर्यायें भी होती हैं। पुद्गल में विभाव पर्यायें कालप्रेरित होती हैं जो स्निग्ध व रूक्षगुण के कारण बन्ध रूप होती हैं। नियमसार ग्रन्थ में कहा है – “जो पर्यायें कर्मोपाधि से रहित हैं, वे स्वभाव पर्यायें हैं।" कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि भणिदा।।१५।। अगुरु लघुगुण का परिणमन स्वाभाविक अर्थ पर्यायें हैं। वे पर्यायें बारह प्रकारहैं, छ: वृद्धि रूप और छ: हानि रूप। अनन्तभग्गवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, ये छ: वृद्धि रूप पर्यायें हैं। अनन्तभाग हानि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि, अनन्तगुणहानि, ये छ: हानि रूप.पर्यायें हैं। इस प्रकार छ: वृद्धि रूप और छ: हानि रूप अर्थ पर्यायें जाननी चाहिथे।२ ___शङ्का – लोकाकाश में काल द्रव्य के विद्यमान रहने से सभी द्रव्यों सहित आकाश में भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता रहता है; किन्तु अलोकांकाश में तो काल द्रव्य का अभाव है अत: अलोकाकाश में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तथा पर्यायें नहीं होना चाहिये और अगर इस बात को स्वीकार किया जाये तो आकाश नाम का कोई द्रव्य ही नहीं ठहरेगा, क्योंकि आगम वाक्य हैं – 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।' समाधान – जो स्वभाव पर्याय युक्त द्रव्य हैं, अथवा जो अर्थ पर्याय युक्त द्रव्य हैं। उनकी पर्यायों का परिवर्तन पर-निमित्त से नहीं होता है। प्रत्येक द्रव्य में आगम-प्रमाण से सिद्ध अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद वाला अगुरुलघुगुण स्वीकार किया गया है जिसका छ: स्थान पतित वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है। अत: अलोकाकाश में पर्यायें अथवा उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वभाव से होते हैं। इसलिये कोई बाधा नहीं आती प्राकृत नय चक्र में स्वभाव पर्याय का कथन निम्न प्रकार किया गया है अगुरुलहुगा अणंता, समया समया समुब्भवा जे वि । दव्वाणं ते भणिया, सहाव गुण पज्जया जाण ।।२२।। अर्थात् अगुरुलघुगुण अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद वाला है, उस अगुरुलघुगुण १. नयचक्र, श्लोक १८-१९-२०. २. आलापपद्धति सूत्र १७... ३. सर्वार्थसिद्धि, ५/७ वा. ३९.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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