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• (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (४१)
आचार्य वसुनन्दि में प्रतिसमय पर्यायें उत्पन्न होती रहती हैं। अगुरुलघुगुण की पर्यायों को शुद्ध द्रव्यों की स्वभाव पर्यायें जाननी चाहिये।
- प्रत्येक शुद्ध द्रव्य में अनन्त गुण होते हैं। उन अनन्त गुणों में एक अगुरुलघुगुण भी होता है जिसमें अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। इस अगुरुलघुगुण में ही नियत क्रम से अविभाग प्रतिच्छेदों की छः प्रकार की वृद्धि और छ: प्रकार की हानि रूप प्रति समय परिणमन होता रहता है। यह प्रतिसमय का परिणमन ही शुद्ध (धर्म, अधर्म, आकाशादि) द्रव्यों की स्वभाव पर्यायें हैं और यही उत्पाद व्यय ध्रौव्यत्व भी है।
__ आचार्य जयसेन ने “पञ्चास्तिकाय” (गाथा १६ की टीका) में लिखा है - “स्वभावगुणपर्याया अगुरुलघुकगुणषट्हानिवृद्धिरूपाः सर्वद्रव्य साधारणाः।"
अर्थात् अगुरुलघुगुण षट्हानि षट्वृद्धि रूप सर्व द्रव्यों में साधारण स्वभाव गुण पर्याय है। इसी ग्रन्थ में अगुरुलघुगुण का स्वरूप बताते हुए लिखा है - "सूक्ष्मावाग्गोचरा: प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणदभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः।"
सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते।
आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं, नान्यथावादिनो जिनाः।। अर्थ- जो सूक्ष्म वचन के अगोचर और प्रति समय में परिणमनशील अगुरुलघुनाम के गुण हैं, उन्हें आगम प्रमाण से स्वीकार करना चाहिए। जिनेन्द्रभगवान् के कहे हए जो सूक्ष्म तत्त्व हैं वे हेतुओं अर्थात् तर्क के द्वारा खण्डित नहीं हो सकते, इसलिये जो सूक्ष्म तत्त्व हैं वे आज्ञा (आगम) से सिद्ध है, अत: उनको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नहीं होते हैं। अर्थात् जैसा उन्होंने अपने शुद्ध ज्ञान से देखा है, वैसा ही कथन किया है। ... यद्यपि अगुरुलघुगुण सामान्य गुण है, सर्वद्रव्यों में पाया जाता है तथापि संसार अवस्था में कर्म परतन्त्र जीवों में उस स्वाभाविक अगुरुलघुगुण का अभाव है। यदि कहा जाय कि स्वभाव का विनाश मानने पर जीव का भी विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि लक्षण के विनाश होने पर लक्ष्य का विनाश होता है, ऐसा न्याय है, सो भी बात नहीं है अर्थात् अगुरुलघुगुण के विनाश होने पर भी जीव का विनाश नहीं होता है, क्योंकि ज्ञान-दर्शन को छोड़कर अगुरुलघुत्व जीव का लक्षण नहीं है; चूँकि वह आकाश आदि अन्य द्रव्यों में भी पाया जाता है।
अनादि काल से कर्म नोकर्म से बंधे हुए जीवों के कमोंदयकृत अगुरुलघुत्व है; किन्तु मुक्त जीवों के कर्म नोकर्म की अत्यन्त निवृत्ति हो जाने पर स्वाभाविक अगुरुलघुगुण का आविर्भाव होता है। १. धवल पु. पृ. ५८. २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ८/११.