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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (ख) विभाव अर्थ पर्याय “विभावार्थपर्यायाः षड्विधाः मिथ्यात्व - कषाय-राग-द्वेष- पुण्यपाप- रूपाऽध्यवसायाः।।१८।। (आलाप पद्धति) (४२) आचार्य वसुनन्दि अर्थात् मिथ्यात्व कषाय आदि रूप जीव के परिणामों में कर्मोदय के कारण जो प्रतिसमय हानि या वृद्धि होती है वह विभाव अर्थ पर्याय है। इसके छ: भेद हैं— मिथ्यात्व, कषाय, राग, द्वेष, पुण्य, पाप । इन छह रूप अध्यवसाय विभाव अर्थ पर्यायें हैं। कषायों की षट्स्थानगत हानि वृद्धि होने से विशुद्ध या संक्लेश शुभ-अशुभ लेश्याओं के स्थानों में जीव की अशुद्ध (विभाव) अर्थपर्यायें जाननी चाहिये। द्वि अणुक आदिक स्कंधों में वर्णादि से अन्य वर्णादि होने रूप पुद्गल की विभाव अर्थ पर्यायें हैं। इस प्रकार जीव के लेश्यारूप परिणामों में और पुद्गल स्कन्धों के वर्णादि में जो प्रतिक्षण परिणमन होता है वह विभाव अर्थ पर्याय है। २. व्यञ्जन पर्याय “व्यञ्जनपर्यायास्तेद्वेधा स्वाभावविभावपर्यायभेदात्। अर्थात् स्वभाव व्यञ्जन पर्याय और विभाव व्यञ्जन पर्याय के भेद से व्यञ्जन पर्याय दो प्रकार की है । पुनः द्रव्य व्यञ्जन पर्याय और गुण व्यञ्जन पर्याय के भेद से इनके दो-दो भेद हुए हैं। पुनः इन चारों गुणों का जीव और पुद्गल पर प्रयोग आलापपद्धतिकार ने निम्न प्रकार किया है। विभाव द्रव्यव्यञ्जनपर्यायाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्यायाः अथवा चतुरशीति लक्ष योनयः ।। १९ ।। अर्थात् नर-नारक आदि रूप चार प्रकार की अथवा चौरासी लाख योनि रूप जीव की विभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है। विभावगुण व्यञ्जन पर्याया मत्यादयः ।। २० ।। अर्थात् मतिज्ञान आदिक जीव की विभाव गुण व्यञ्जन पर्यायें हैं। “स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपंर्यायाश्चरमशरीरात् किंचिन्यूनसिद्धपर्यायाः । । २१ । । ” अर्थात् अन्तिम शरीर से कुछ कम जो सिद्ध पर्याय है, वह जीव की स्वभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है। “स्वभावगुणव्यंजनपर्याया अनन्तचतुष्टयरूपा जीवस्य ।। २२ ।” अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इन अनन्तचतुष्टरूप •
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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