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वसुनन्दि-श्रावकाचार (४३)
आचार्य वसुनन्दि) जीव की स्वभाव गुण व्यञ्जन पर्याय है।
"पुद्गलस्य तु द्वयणुकादयो विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः।।२३।।" अर्थात् द्वि-अणुकादि स्कन्ध पुद्गल की विभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय हैं। “रसरसान्तरगंधगंधान्तरादि विभावगुणव्यञ्जनपर्यायाः।।२४।।"
अर्थात् द्वि-अणुक आदि स्कन्धों में एक वर्ण से दूसरे वर्ण रूप, एक रस से दूसरे रस रूप, एक गन्ध से दूसरे गन्ध रूप, एक स्पर्श से दूसरे स्पर्श रूप होने वाला चिरकाल स्थायी परिणमन पुद्गल की विभाव गुण व्यञ्जन पर्याय है।
"अविभागी पुद्गलपरमाणु स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः।।२५।।" अर्थात् अविभागी पुद्गल परमाणु पुद्गल की स्वभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है। “वर्णगंधरसैकैकाविरूद्ध स्पर्श द्वयं स्वभावगुणव्यंजनपर्यायाः।।२६।।
अर्थात् पुद्गल परमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और परस्पर अविरूद्ध दो स्पर्श होते हैं। इन गुणों की जो चिरकाल स्थायी पर्यायें हैं वे स्वाभाव-गुण-व्यञ्जन पर्यायें हैं।
। उपरोक्त सन्दर्भ में निम्न ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं - धवल पुस्तक ११,१२,१४/ तिलोयपण्णत्ति/ बृ०द्र०संग्रह/ तत्त्वार्थराजवार्तिक अ० ५, पञ्चास्तिकाय आदि।।२५।।
. जीव और पुद्गल का परिणामित्व परिणामजुदो जीओ गइगमणुवलंभओ असंदेहो। तह पुग्गलो य पाहण पहुइ-परिणामदंसणा गाउं ।। २६।।
अन्वयार्थ- (जीओ परिणाम जदो) जीव परिणामयक्त (परिणामी) है, (क्योंकि), (गइगमण असंदेहो उवलंभो) गतियों में गमन निःसन्देह पाया जाता है। (य) और, (तह) उसी प्रकार, (पाहण-पहुइ-परिणाम-दंसणा) पाषाण, पृथ्वी आदि पर्यायों के परिणमन से, (पुग्गलो) पुद्गल (भी परिणामी) जानना चाहिये। ।।२६।।
.. अर्थ-नरक, स्वर्ग आदि गतियों में गमन करने के कारण निश्चित रूप से जीव परिणाम (पर्याय) युक्त है। इसी तरह पाषाण, पृथ्वी, मिट्टी आदि स्थूल पर्यायों के परिणमन देखे जाने से पुद्गल को परिणामी जानना चाहिये।
व्याख्या- आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है -
१. पंचास्तिकाय गाथा १६ टीका.