SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (४४) आचार्य वसुनन्दि कम्मं णाम समक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं, णेरइयं वा सुरं कुणदि ।।१७।। अर्थात् नाम संज्ञा वाला कर्म अपने स्वभाव से जीव के स्वभाव का पराभव करके मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव पर्यायों को करता है। जीव जब दूसरी गति में जाता है तब नवीन शरीररूप नोकर्म पुद्गलों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त करता है, उससे मनुष्य, देव, तिर्यंच, नारक पर्यायों की उत्पत्ति होती है। चेतनरूप जीव के साथ अचेतन रूप पुद्गल के मिलने से जो मनुष्यादि पर्यायें हुई यह असमान जाति द्रव्य पर्याय है। ये समान जातीय तथा असमानजातीय अनेक द्रव्यों की एक रूप द्रव्य पर्यायें पुद्गल और जीव में ही होती हैं। ये अशुद्ध ही होती हैं, क्योंकि अनेक द्रव्यों के परस्पर संश्लेष-सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं। यहाँ पर द्रव्य व्यञ्जन पर्याय की अपेक्षा होने से जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों ' को ही ग्रहण किया गया है। पर्यायों सम्बन्धी विशेष ज्ञान पञ्चास्तिकाय, आलाप पद्धति (सटीक) आदि ग्रन्थों से जानना चाहिये। इस गाथा केपहले भी पर्यायों के सम्बन्ध में काफी कुछ स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया गया है।।२६।। ____ अपरिणामी द्रव्य वंजण परिणइ विरहा धम्मादीया हवे अपरिणामा। अत्थपरिणाममासिय सव्वे परिणामिणो अत्था।। २७।। अन्वयार्थ- (वंजण परिणइ विरहा) व्यञ्जन पर्याय के अभाव से, (धम्मादीया) धर्मादिक (चार द्रव्य), (अपरिणामा) अपरिणामी, (हवे) होते हैं। (अत्य परिणाममासिय) (किन्तु) अर्थपर्याय की अपेक्षा, (सव्वे) सभी, (अंत्था) पदार्थ, (परिणामिणो) परिणामी हैं।।२७।। भावार्थ- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल इन चार द्रव्यों में मात्र अर्थ पर्याय होती है, व्यञ्जन पर्याय न होने से इन्हें अपरिणामी कहा है। किन्तु जब अर्थ पर्याय की अपेक्षा कथन किया जाता है तब सभी द्रव्य परिणामी ठहरते हैं, क्योंकि छहों द्रव्यों में भी अर्थपर्याय होती हैं।।२७।। जीवत्व एवं मूर्तत्व गुण वाले द्रव्य जीवो हु जीवदव्वं एक्कं चिय चेयणा चुआ सेसा। मुत्तं पुग्गलदव्वं रूवादिविलोयणा ण सेसाणि ।। २८।। १. पंचास्तिकाय गाथा १७ टीका.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy