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विसुनन्दि-श्रावकाचार (४५)
आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ – (हु) निश्चय से, (एक्कं जीवदव्वं चिय) एक जीव द्रव्य ही, (जीवो) जीवत्वधर्म से युक्त है, (सेसा) शेष सभी द्रव्य, (चेयणा चुआ) चेतना से रहित हैं। (पुग्गलदव्वं मुत्तं) पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, (क्योंकि उसमें), (रूवादिविलोयणा) रूपादिक देखे जाते हैं, (ण सेसाणि) शेष द्रव्य मूर्तिक नहीं हैं।।२८।।
अर्थ- एक जीवद्रव्य ही जीवत्वधर्म से युक्त है, शेष सभी द्रव्य चेतना से रहित हैं। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, क्योंकि उसमें रूपादिक देखे जाते हैं, शेष द्रव्यमूर्तिक नहीं हैं।
व्याख्या- एक जीव द्रव्य ही जीवत्व धर्म से युक्त है अर्थात् जो चार प्राणों से जीता था, जीता है और जीवेगा वह जीव है और शेष सभी द्रव्य चेतना से रहित हैं। एकमात्र जीव द्रव्य ही ऐसा है जिसमें जानने-देखने एवं अनुभव करने की शक्ति है, अन्य किसी भी द्रव्य में यह शक्ति नहीं होती, अत: वे चेतना से रहित अजीव द्रव्य कहे जाते हैं। .
एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है अर्थात् रस, रूप, गन्ध आदि से सहित है। पद्गल के छोटे से छोटे हिस्से में कोई न कोई स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण अवश्य ही पाये जाते है इसलिये इन्हें मूर्तिक कहते हैं, शेष सभी द्रव्य अमूर्तिक (अरूपी) हैं, क्योंकि उनमें रूप, रस, गन्ध आदि नहीं पाये जाते हैं।।२८।।
__सप्रदेशी एवं अप्रदेशी द्रव्य स-पएस पंच कालं मुत्तूण पएस-संचया णेया।
अ-पएसी खलु कालो पएस-बंधच्चुदो जम्हा।।२९।।
अन्वयार्थ– (कालं मुत्तूण) काल द्रव्य को छोड़कर, (पंच सपएस णेया) पांच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिये (क्योंकि उनमें), (पएस-संचया) प्रदेशों का संचय पाया जाता है। (कालो खलु अपएसी) काल द्रव्य निश्चय से अप्रदेशी है, (जम्हा) क्योंकि (पएस-बंधच्चुदो) प्रदेशों के बंध से रहित है।।२९।।
अर्थ- कालद्रव्य के अलावा पाँच द्रव्य अप्रदेशी हैं, क्योंकि उनमें प्रदेशों का संचय पाया जाता है। कालद्रव्य निश्चय से अप्रदेशी है, क्योंकि वह प्रदेशों के बन्ध से रहित है।
व्याख्या- काल द्रव्य को छोड़कर शेष पांच द्रव्य सप्रदेशी अर्थात् प्रदेश वाले होते हैं। कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योंकि वह प्रदेशों के बंध या समूह से रहित है, अर्थात् कालद्रव्य के कालाणु भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिकदेव ने कहा है -