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वसुनन्दि-श्रावकाचार
आचार्य वसुनन्दि
(४६)
लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का |
रयणाणं रासीमिव ते कालाणु असंख दव्वाणि ।। २२ ।।
अर्थात् जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि की भांति भिन्न-भिन्न
रूप से एक-एक स्थित हैं वे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं। प्रदेश का लक्षण करते हुए वे आगे कहते हैं
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जावदियं आयासं अविभागी पुग्गलाणुउट्टद्धं ।
तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिह ।। २७।।
अर्थात् जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु से रोका (व्याप्त हो जाता है. उसे सर्व अणुओं को स्थान देने में योग्य प्रदेश जानों अर्थात् एक आकाश प्रदेश अन्त अणुओं को स्थान देने की योग्यता रखता है । । २९ । ।
एक रूप तथा अनेक रूप द्रव्य
धम्माधम्मागासा एग सरुवा पएस अविओगा ।
ववहार काल पुग्गल - जीवा हु अणेय रूवा ते ।। ३० ।।
अन्वयार्थ - ( धम्माधम्मागासा) धर्म, अधर्म, आकाश, (एगसरुवा) एक स्वरूप हैं, (क्योंकि), (पएस- अविओगा) ( इन तीनों द्रव्यों के) प्रदेश अवियुक्त हैं। (ववहार- - काल पुग्गल - जीवा) व्यवहार काल - पुद्गल (और) जीव, (अणेयरूवा तेहु) अनेक रूप हैं ।। ३० ।।
भावार्थ — धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीनों द्रव्य एकस्वरूप हैं अर्थात् अपने स्वरूप या आकार को बदलते नहीं हैं, क्योंकि इन तीन द्रव्यों के प्रदेश परस्पर अवियुक्त हैं अर्थात् समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। तीनों लोकों में ऐसा कोई भी स्थान नहीं, जहाँ ये तीनों द्रव्य अवियुक्त रूप में न पाये जाते हो । व्यवहार काल (घण्टा, मिनिट आदि), पुद्गल और जीव ये तीन एक स्वरूप नहीं हैं। यह अनेक स्वरूप हैं तथा अपने आकार आदि को भी बदलते रहते हैं । । ३० ।।
क्षेत्रवान् द्रव्य
आगासमेव खित्तं अवगाहण लक्खणं जदो भणियं ।
सेसाणि पुणोऽखित्तं अवगाहण लक्खणाभावा ।। ३१ । ।
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अन्वयार्थ – (अगासमेव खित्तं) आकाश द्रव्य ही क्षेत्रवान् है, (जदो) क्योंकि उसका, (अवगाहण लक्खणं भणियं) अवगाहन लक्षण कहा गया है। (पुण साणि अखित्तं) पुनः शेष द्रव्य अक्षेत्रवान् हैं, (क्योंकि, उनमें ), (अवगाहण लक्खणाभावा)