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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२०) उत्तम पात्र मध्यम पात्र उत्तम पात्र तीर्थङ्कर मुनि तत्त्ववेत्ता - मुनि मध्यम पात्र | १०वीं - ११वीं प्रतिमाधारी ७ से ९ प्रतिमाधारी जघन्य पात्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षायोपशिक सम्यग्दृष्टि इन सभी पात्रों को दान देना चाहिए ।। २२२ ।। आचार्य वसुनन्दि जघन्य पात्र अनगारी - मुनि १ से ६ प्रतिमाधारी उपशम सम्यग्दृष्टि कुपात्र और अपात्र कौन हैं? वय-तव- सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जिओ कुत्तं तु । सम्मत- सील - वयवज्जिओ अपत्तं हवे जीओ । । २२३ । । १ अन्वयार्थ – (वय-तव- सीलसमग्गो) व्रत-तप-शील से सहित, (तु) किन्तु, (सम्मत्तविवज्जिओ) सम्यक्त्व से रहित, ( कुपत्तं) कुपात्र है । ( सम्मतसीलवय वज्जिओ) सम्यक्त्व-शील-व्रत रहित, (जीओ) जीव, (अपत्तं हवे ) अपात्र हैं। अर्थ — जो व्रत, तप और शील से सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित है, वह कुपात्र है। सम्यक्त्व, शील और व्रत से रहित जीव अपात्र है। १. व्याख्या— जिसने व्रत-धारण किये हैं, तप करता है, शीलवान् भी हैं; किन्तु सम्यग्दर्शन- सच्ची श्रद्धा से रहित है, ऐसा जीव कुपात्र है और जो सम्यक्त्व तथा शील- व्रत-तप आदि सभी से रहित है वह अपात्र जानना चाहिए। भूमि तीन प्रकार की होती है— उपजाऊ, अल्प उपजाऊ और अनुपजाऊ । उपजाऊ भूमि में बोया गया बीज महान फल देता है। अल्प उपजाऊ भूमि में बोया गया बीज अल्प फल देता है तथा अनुपजाऊ भूमि में डाला गया बीज कुछ भी फल नहीं देता अपितु स्वयं भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार सत्पात्रों में दिया गया दान अत्यन्त बृहत् फल प्रदान करता है। कुपात्रों में दिया गया दान अत्यन्त अल्प फल को देता है तथा अपात्रों में दिया गये दान का फल ही प्राप्त नहीं होता अपितु कभी-कभी उल्टा पाप बंध और हो जाता है। अपात्र को दान देना निष्फल है। आ० सोमदेव कहते हैं भस्मनिहुतमिवापात्रेष्वर्थव्ययः ।। नी०वा० ११ ।। अर्थात् अपात्रों में दान राख में ढकी हुई अग्नि में होम किये जाने के समान निष्फल है। तयःशीलव्रतैर्युक्तः कुदृष्टि स्यात्कुपात्रकम्। अपात्रं व्रतसम्यक्त्व तपः शीलविवर्जितम् । । गुणभू० श्रा० १५० ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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