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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१९) आचार्य वसुनन्दि) - अर्थ- जो जहाज की तरह अपने आश्रितों को अर्थात् दानकर्ता, कराने वाले और दान की अनुमोदना करने वालों को संसार समुद्र से पार कर देता है वह पात्र है। मुक्ति के कारण या मुक्ति ही जिनका प्रयोजन है उन सम्यग्दर्शन आदि गुणों के संयोग के भेद से पात्र तीन प्रकार के हैं। आगे का एक श्लोक और देखिये यतिः स्यादुत्तमं पात्रं मध्यमं श्रावकोऽधमम्। सुदृष्टिस्तद्विशिष्टत्वं विशिष्टगुणयोगतः।।४४।। अर्थ-मनि उत्तम पात्र हैं। श्रावक मध्यम पात्र हैं और सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। गुणविशेष के सम्बन्ध से उन उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों में परस्पर में तथा दूसरों से भेद हैं।। आचार्य सोमदेव पात्रों के भेद भिन्न प्रकार से कहते हैंपात्रं च त्रिविधं धर्मपात्रं-कार्यपात्रं-कामपात्रं चेति।।नी०वा० १२।। अर्थ- और वे दान देने योग्य पात्र तीन प्रकार के हैं— धर्मपात्र, कार्यपात्र और कामपात्र के भेद से। धर्मपात्र- मोक्ष मार्ग के अनुयायी तथा प्रणेताओं को धर्मपात्र कहते है। - कार्यपात्र- स्वामी की आज्ञानुसार चलने वाले, प्रतिभा सम्पन्न, चतुर और कर्तव्यनिष्ठ भृत्यों को कार्यपात्र कहते हैं। कामपात्र- इन्द्रियजन्य सुखानुभव के साधन स्वरूप कमनीय, सौम्य, लावण्ययुक्त कामनियों व पुरुषों को कामपात्र कहा है। यह सभी अपने स्वभावानुसार फल देते हैं। .. यशस्तिलक में इन्हीं आचार्य ने पात्रों के पाँच भेद किये हैं- (१) समयी-जैन सिद्धान्त के वेत्ता, (२) व्रती-श्रावक, (३) साधु, (४) आचार्य और (५) जैन शासन की प्रभावना करने वाले। इन पात्रों का विवेचन उपरोक्त ग्रन्थ से जानना चाहिए। प्राणियों का मन उत्तम होने पर भी यदि दान, पूजा, तप और जिनभक्ति से शून्य है तो वह कोठी में भरे धान आदि बीजों के समान है। स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति नहीं कर सकते। इन्हीं बीजों को धर्मरूपी उपजाऊ भूमि में वपित (बो) कर दिया जाय तो सुख शान्तिरूपी फल उत्पन्न कर सकते हैं। सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्यश्री सन्मति सागरजी दान देने योग्य पात्रों के नौ भेदों का उल्लेख करते हैं
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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