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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६०) आचार्य वसुनन्दि आदि के रूपों को धारण करके, (वज्जमयतुंड-तिक्खणहरेहि) वज्रमय चोंचों (और) तीक्ष्ण नखों से, (पहरंति) प्रहार करते हैं।, (केई) कोई नारकी (दूसरे नारकी को), (अजंघ-परिऊण) लल्टा धरकर, (करकच-चक्केहिं) करकच (और) चक्र से, (फाउंति) फाड़ते हैं, (परे) अन्य (दूसरे), (मुसलेहि य मुग्गरेहि) मूसल और मुद्गरों से, (चुण्णी -चुण्णी ) चूर-चूर, (कुणंति) कर डालते हैं।, (केई) कोई (नारकी), (जिन्माछेयण) जीभ काटते हैं, (णयणाण फोडणं) आंखें फोड़ते हैं, (दंतचूरणं) दांत तोड़ते हैं, (दलणं-मलणं कुणंति) दलन-मलन करते हैं, (और), (तिलमत्तखंडेहि) - तिलप्रमाण खण्डों से, (खंडंति) टुकड़े कर डालते हैं।, (अण्णे) अन्य नारकी, (कलंववालुयथलम्मि तत्तम्मि) तपाये हुए तीक्ष्ण रेतीले मैदान में, (पाडिऊण लोट्टविंति) डालकर लुटाते हैं, (पुणो) फिर, (रडत) रोते हुए (उसको), (णिहणंति) . मारते हैं, (और), (भूमीए घसंति) भूमि पर घसीटते है। . . भावार्थ-वे दयारहित नारकी जीव ही कृकवाक (मुर्गा-कुक्कुट), गिद्ध, कौओं . आदि के रूपों को धारण करके वज्रमय मजबूत चोंचों, से और भयङ्कर कठोर नाखूनों से दूसरे नारकियों को नोचते हैं। कितने क्रूर नारकी दूसरे नारकी को जबर्दस्ती पकड़कर उसे उर्ध्वजंघ अर्थात् उल्टा करके (शिर नीचे और पैर ऊपर करके) करकच अर्थात् करोंत से चीर-फाड़ डालते हैं तथा कितने ही नारकी उसे मूसल और मुद्गरों से चूरा-चूरा कर डालते हैं। कितने ही नारकी दूसरे झूठ बोलने वाले अथवा शिकार का उपदेश देने वाले अथवा मांस खाने वाले नारकियों की जीभ काटते हैं। जो परस्त्री को गलत दृष्टि से देखते है, सच्चे, देव,शास्त्र, गुरु में और अन्य गुणीजनों में दोष देखते हैं तथा हमेशा ही गन्दे चित्र देखते हैं, ऐसे लोगों की नरक में आंखे फोड़ी जाती हैं। अन्य दूसरे नारकी किसी मांसभक्षी अथवा पशुओं के अंगों के सामान का व्यापार करने वालों के दांत तोड़ते है और उसके सम्पूर्ण शरीर को रौंद डालते हैं। दाल की तरह दल देते हैं तथा कपड़ों की तरह पटक-पटक कर मलते हैं। उसके शरीर के तिल के बराबर टुकड़े करके इधर-उधर फेंक देते हैं। ___ कितने ही नारकी दूसरे (नवीन) नारकी को मिलकर पकड़ते है तथा भयङ्कर तपते हुए तीक्ष्ण रेतीले मैदान में डालकर लुटाते हैं, लोट-पोट कर देते हैं, उल्टा सीधा करके पुन: उस जोर-जोर से रोते हुए नारकी को मारते है और उस भयङ्कर कठोर तीक्ष्ण भूमि . पर घसीटते है, उसका शरीर खून से लथ-पथ, छिद्रमय हो जाता है। जिन-जिन तरीकों से उसने पूर्व भव में हिंसा, शिकार की होती है उनसे भी भयङ्कर तरीकों से उसे त्रास भोगना पड़ता है।।१६६-१६९।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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