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वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५९)
आचार्य वसुनन्दि) इन्द्रियों से पाप बंध
पुष्वभवे जं कम्मं पंचिंदिय वस गएण जीवेण । * हसमाणेण विबद्धं तं किं णित्थरसि' रोवंतो।।१६५।।
अन्वयार्थ- (पुटवभवे) पूर्वभव में, (पंचिंदियवसगयेण) पांचों इन्द्रियों के वश होकर, (हसमाणेण) हँसते हुए, (जीवेण) जीव के द्वारा, (जं कम्म) जो कर्म, (विबद्धं) बांधे गए हैं, (तं किं णित्थरसि रोवंतो) उन्हें क्या रोते हुए दूर कर सकता है।
भावार्थ- हे पापी जीव! तने पूर्व भव में पांचो इन्द्रियों के वशीभूत होकर पापकृत्य करते हुए जो कर्म बांधे है। उनके फल का उदय होने पर अब क्यों रोता है, क्या रोने से वे कर्म अपना फल देना छोड़ देंगे? अर्थात् नहीं छोड़ेंगे। पुराने कर्म अपना फल देकर ही जायेंगे।।१६५।। शिकार खेलने का फल
किकवाय-गिद्ध-वायसरूवं धरिऊण णारया चेव। पहरंतिर वज्जमयतुंड-तिक्खणहरेहि दयरहिया।।१६६।। धरिऊण उड्डजंघे करकच चक्केहिं केइ फाडंति। मुसलेहिं मुग्गरेहिं य चुण्णी चुण्णी कुणंति परे ।। १६७ ।। जिब्भाछेयण णयणाण फोडणं दंतचूरणं दलणं। मलणं कुणंति खंडंति केइं तिलमत्तखंडेहिं ।। १६८।। अण्णे कलंववालुय थलम्मि तत्तम्मि पाडिऊण पुणो। लोट्टाविंति रंडतं णिहणंति घसंति भूमीए।। १६९।।
अन्वयार्थ- (वे) (दयरहिया) दयारहित, (णारया चेव) नारकी जीव ही, (किकवाय-गिद्ध-वायसरुवं धरिऊण) कृकवाक, (कुक्कुट-मुर्गा) गिद्ध, काक
१. प. णिरसि, झ.ब. णिच्छंरसि. २. प. पहणंति. ३. ह. तिक्खणहिं (मूलाराधना १५७१). ४. म. चुण्णीकुवंति परे णिरया. ५. कलंववालुयं- कदंबप्रसूनाकारा वालुकाचितदुः प्रवेशा: वज्रदलालंकृतखदिरांगार
कणप्रकरोपमानाः (मूलारा गा. १५६८ विजयोदया टीका).