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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५८) आचार्य वसुनन्दि (विसइ) घुसता है।, (तत्थवि) वहां भी, (पविट्ठमित्तो) घुसते ही, (खारुण्हजलेण) खारे और गर्म जल से, (दसव्वंगो) (उसका) सारा शरीर जल जाता है, (तओ) तब (वह), (तुरिओ) शीघ्र ही, (हाहाकारं पकुव्वंतो) हाहाकार करता हुआ, (णिस्सरइ) निकलता है। भावार्थ- जब जलते हुए कुश को उसके मुख में डाला जाता है तब वह अति तीव्र दाह से संतापित होकर और प्यास की भयङ्कर वेदना से पीड़ित होकर, प्यास बुझाने और शरीर की गर्मी शान्त करने की इच्छा से कृमि, पीप और रुधिर से परिपूर्ण वैतरणी नामक नदी में घुसता है। उसमें घुसते ही खारे अर्थात् क्षारयुक्त तेजाब जैसे पदार्थ से और उष्ण जल से उसका शरीर जल जाता है, तब वह अतिशीघ्र ही हाहाकार करता हुआ वहां से निकलता है।।१६१-१६२।। परस्त्री एवं वेश्या सेवन का फल दट्ठण णारया णीलमंडवे' तत्तलोहपडिमाओ। आलिंगाविंति तहिं धरिऊण बला बिलवमाणं।।१६३।। अगणित्ता गुरुवयणं, परिस्थि-वेसं च आसि सेवंतो।' एण्हिं तं पाप फलं ण सहसि किं रुवसि तं जेण।।१६४।। अन्वयार्थ- (उस नारकी को भागता हुआ), (दलूण) देखकर, (णारया) नारकी, (णीलमंडवे) नील मण्डप में, (तत्तलोहपडिमाओ) तप्त लोह प्रतिमाओं से, (बलाधरिऊण) जबर्दस्ती पकड़कर, (विलवमाणं) विलाप करते हुए (उसे), (आलिंगाविंति) आलिंगन कराते है। (और कहते है), (अगणित्ता गुरुवयणं) गुरुवचनों नहीं गिन कर, (परिस्थि-वेसंच) परस्त्री और वेश्या का, (सेवंतो आसि) सेवन किया है, (एण्हिं) इस समय, (तं) उस, (पावफलं) पाप फल को, (किं ण सहसि) क्यों नहीं सहता है, (जेण रुवसि तं) जिससे की रोता है। . भावार्थ- नारकी उसे भागता हुआ देखकर और पकड़कर काले लोहे से बनाए गये नील मण्डप में ले जाकर विलाप करते हुए उस नारकी को तपाई हुई पुतलियों से आलिंगन कराते हैं और कहते हैं कि गुरुजनों के वचनों को कुछ नहीं गिनकर तूने परस्त्री सेवन और वेश्यागमन किया है, अब इस समय उस पाप के फल को क्यों नहीं सहता है जिससे कि रो रहा है। अब रोना धोना बन्द कर और उस पूर्वकृत पापकर्म के उदय को सहन कर।।१६३-१६५।। १. काललोहघटितमंडपे (मूलाराधना गा. १५६९, विजयोदया टीका).
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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