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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (१५७) आचार्य वसुनन्दि) तं किं ते विस्सरियं जेण मुहं कुणसि रे पराहुत्तं । एवं भणिऊण कुसि छुहिति तुंडम्मि पज्जलियं ।। १६० ।। अन्वयार्थ- (तुरियं) शीघ्रता से, (पलायमाणं) भागता हुआ (देखकर), (कूरा णारया) क्रूर नारकी, (सहसा धरिऊण) सहसा पकड़कर (और), (तस्स) उसका, (मंसं छित्तूण) मांस काटकर, (तस्सेव) उसी के, (तुंडम्मि) मुख में, (छुहंति) डालते है। (जब वह), (णियमंसं) अपने मांस को, (भोत्तुं अणिच्छमाणं) नहीं खाना चाहता है, (तो) तब, (वे नारकी), (भणंति) कहते हैं, (रे दुट्ठ) अरे दुष्ट! (तू तो), (पुव्वं) पूर्व भव में, (अइमिटुं भणिऊण) बहुत मीठा कहकर (मांस), (भक्खंतो जं आसि) मांस जो खाया करता था।, (रेतं किं ते विस्सरियं) अरे! सो क्या वह तू भूल गया है, (जेण) जिससे, (महं) मुख को, (पराहुत्त) पराङ्गमुख, (कुणसि) करता है, (एवं भणिऊण) ऐसा कहकर, (पज्जलिय) जलते हुए, (कुर्सि) कुश को, (उसके), (तुंडम्मि) मुख में, (छुहिति) डालते हैं। भावार्थ- असिपत्र वन के दुःखों से घबरा कर शीघ्रता से अन्य किसी दिशा में भागते हुए उस नारकी को देखकर क्रूर/दुष्ट नारकी सहसा (एकदम) उसे जबर्दस्ती पकड़ लेते है और उसका मांस काटकर उसके ही मुख में डालते हैं। जब वह अपने मांस को नहीं खाना चाहता है, तब वे नारकी उससे कहते हैं कि, अरे दुष्ट! तू तो पूर्व भव में परजीवों के मांस को बहुत मीठा कहकर खाया करता था। पर अब क्या हुआ? क्या भूल गया उस बात को जो अब अपना ही मांस खाने से मुंह को मोड़ता है? ऐसा कहकर वे नारकी जलते हुए कुश को उसके मुख में जबर्दस्ती डाल देते हैं।।१५८-१६०।। वैतरणी नदी के दुःख अइतिव्वदाहसंतविओ तिसावेयणासमभिभूओ। किमि-पूय-रुहिरपुण्णं वइतरणिणइं तओ विसइ।। १६१।। तत्थवि पविट्ठमित्तो' खारुण्हजलेणदड्डसव्वंगो। णिस्सरइ तओ तुरिओ हाहाकारं पकुव्वंतो।।१६२।। अन्वयार्थ– (अइतिव्वदाहसंताविओ) अतितीव्र दाह से संतापित होकर, (तिसावेयणा-समभिभूओ) प्यास की वेदना से परिपीड़ित होकर (वह), (किमि-पूइ-रुहिरपुण्णं) कृमि-पीप-रुधिर से पूर्ण, (वइतरणिणइं). वैतरणी नदी में, १. ब.सत्तो, म.प. मित्ता.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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