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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५६)
आचार्य वसुनन्दि पत्तों से प्राप्त दुःख कह वि तओ जइ छुट्टो असिपत्त वणम्मि विसइ भयभीओ। णिबडंति तत्थ पत्ताइं खग्गसरिसाइं अणवरयं।। १५६।। तो तम्हि पत्तपडछिणेण छिण्णकर-चरण भिण्णपुट्ठि सिरो। पगलंतरूहिरधारो कंदंतो सो तओ णीइ२।। १५७।।
___ अन्वयार्थ- (जइ) यदि (कह वि तओ छुट्टो) कैसे भी वहाँ से छूटा (तो), (भयभीओ) भयभीत होता हुआ, (असिपत्तवणम्मि) असिपत्र वन में, (विसइ) प्रवेश करता है, (तत्य) वहां, (खग्गसरिसाई) खड्ग के समान, (पत्ताई) पत्ते, (अणवरयं) हमेशा (उसके ऊपर), (णिबंडंति) मिरते हैं। (तम्हि) उसमें, (पत्तपडणेण) पत्तों के गिरने से (उसके), (छिण्णकर-चरण भिण्णपुट्ठि-सिरो) हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि कट-कट कर अलग हो जाते हैं, (और), (पगलंतरुहिरधारो) खून की धारा बहने लगती है, (तो) तब, (सो) वह, (कंदंतो) चिल्लाता हुआ, (तओ) वहां से, (णीइ) भागता है।
भावार्थ- लोहा, तांबा आदि का मिश्रित रस पिलाते-पिलाते जब वे नारकी क्षण भर के लिए भी इधर-उधर हो जाते हैं अथवा किसी अन्य नारकी को दुःख देने में संलग्न होते है। तब यह नारकी वहां से छूटकर के भागा भी तो भयभीत हुआ असिपत्र वन में 'यहाँ दुःखों से' बच जाऊँगा ऐसा सोच कर घुसता है। किन्तु असिपत्र वन के वृक्षों के पत्ते तलवार के समान तीक्ष्ण होते हैं, जब वह नारकी क्षणभर के लिये भी रुकता है तो उसके ऊपर तेजधार वाले वृक्षों के पत्ते निरन्तर गिरने लगते है। जब उस असिपत्र वन में पत्तों के गिरने से उसके हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि अंग कट-कट कर अलग हो जाते है, और शरीर से खून की धारा बहने लगती है, तब वह रोता, चिल्लाता हुआ वहाँ से भी भागता है।।१५६-१५७।।
मांससेवन व्यसन का फल तुरियं पलायमाणं सहसा धरिऊण णारया कूरा। छित्तूण तस्स मंसं तुंडम्मि छुहंति' तस्सेव ।। १५८।। भोत्तुं अणिच्छमाणं णियमंसं तो भणंति रे दुट्ठ। अइमिटुं भणिऊण भक्खंतो आसि जं पुव्वं ।। १५९।।
१.
झ. बच्छ.
२.
इ.म. णियइ.