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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५५) आचार्य वसुनन्दि मद्य एवं मधु सेवन का फल तत्तो पलायमाणो संभइ सो णारएहिं दलूण। पाइज्जइ विलवंतो अय-तंबय कलयलं तत्तं ।। १५४।। पच्चारिज्जइ जं ते पीयं मज्ज-महुं च पुव्व भवे। तं' पावफलं पत्तं पिबेहि अयकलयलं घोरं ।।१५५।। अन्वयार्थ- (तत्तो) वहां से, (पलायमाणो) भागता हुआ, (दट्ठण) देखकर, (सो) वह, (णारएहि) नारकियों द्वारा, (संभइ) रोक लिया जाता है (और उनके द्वारा), (विलवंतो) विलाप करते हुए (नारकी के लिए), (तत्तं अय-तंबय) तपाये हुए लोहे-ताबें आदि का, (कलयलं) रस, (पाइज्जइ) पिलाया जाता है। (ते) वे (नारकी), (पच्चारिज्जइ) उलाहना देते है कि (ज) जो (तूने), (पुव्वभवे) पूर्व भव में, (मज्ज च महुं पीयं) मद्य और मधु को पिया है, (तं पावफलं पत्तं) उस पाप का फल प्राप्त हुआ है, (अब इस), (घोरं) घोर, (अयकलयलं पिबेहि) 'अयकलकल' को पी। भावार्थ- अग्निकुण्ड से निकल कर गुफा में घुसने पर वहाँ जब उस नारकी के ऊपर बड़ी-बड़ी शिलायें गिरती है तब वह वहाँ से भागता है। वहां से भागता हुआ देखकर अन्य नारकी उसे जबर्दस्ती पकड़ लेते हैं और विलाप करते हए उस नारकी को भयङ्कर तप्त लोहे और तांबे आदि को पिघला कर बनाया हुआ रस पिलाते हैं। जब वह बार-बार कहने पर भी स्वयं नहीं पीता है, तो दूसरे नारकी जबर्दस्ती पकड़कर उसके मुंह में वह रस डाल देते हैं। जिससे वह नारकी तिलबिला कर चिल्लाने लगता है, तब दूसरे नारकी उसे पूर्वभव की याद दिलाते हुए कहते है कि तूने पूर्व भव में जो मद्य और मधु को पीकर पाप किया था, उसका यह फल है। अत: अब यह घोर 'अयकलकल'पिओ। .. मूलाराधना (१५६९) की आशाधरी टीका में कहा है - तांबा-शीसक-तिलसर्जरस-गुग्गुल-सिक्थक लवण जतुव वज्रलेप का क्वाथ करके अर्थात् मिला करके उबालने पर 'कलकल' कहा जाता है। १. ब. पइज्जइ, म. पाविज्जइ. २. इ. अयवयं, य अससंवय. ३. कलयलं, ताम्र सीसक-तिल-सर्जरस-गुग्गुल-सिक्थक लवण-जतु वज्रलेपा मिलित्ता 'कलकल' इत्युच्यन्ते। - मू.गा. १५६९ आशा. टी.. ४. ब.ब.म. तो. ५. ब. तव.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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