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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६)
आचार्य वसुनन्दि मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु।
देवों और नारकियों की जघन्य (कम से कम) आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) आय तेतीस सागर होती है। मनुष्यों और तिर्यंचों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट से कम समय) और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य तक की होती है। ___कुल- भिन्न-भिन्न शरीरों की उत्पत्ति के कारणभूत नोकर्म वर्गणा के भेदों को कुल (कुलकोटि) कहते हैं। इन्हें भी मनुष्यादि की अपेक्षा कहते हैं - . .
मनुष्य के १४ लाख करोड़, देव के २६ लाख करोड़, नारकी के २५ लाख करोड़, तिर्यंचों के १३४-१/२ लाख करोड़ कुलकोटि होते हैं। सब मिलाकर १९९-१/२ (एक सौ साढ़े निन्यानवे) लाख करोड़ कुल कोटि होते हैं।
योनि- कन्द, मूल, अण्डा, गर्भ, रस, स्वेद आदि की उत्पत्ति के स्थान को . योनि कहते हैं। मूलत: सचित्त, शीत, संवृत्त तथा इनकी प्रतिपक्ष भूत अचित्त, उष्ण, विवृत्त तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत्त की अपेक्षा योनि के नौ भेद हैं। विस्तार से इन सब योनियों के चौरासी लाख भेद होते हैं, जिन्हें आगम से जानना चाहिये। यहां अति संक्षेप से उन्हें कहते हैं – नित्यनिगोद्र, इतर निगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की सात-सात लाख योनियाँ हैं। वृक्षों की दस लाख योनियां हैं। विकलेन्द्रियों की २+२+२ मिलाकर छह लाख योनियां हैं। देव-नारकी और तिर्यंचों की चार-चार लाख योनियां हैं तथा मनुष्यों की चौदह लाख योनियां हैं।
मार्गणास्थान- जिन स्थानों के द्वारा अनेक अवस्थाओं में स्थित जीवों का ज्ञान हो, उन्हें मार्गणा स्थान कहते हैं। मार्गणायें चौदह होती हैं- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार मार्गणा।
गुणस्थान- मोह और योग के निमित्त से होने वाली आत्मा के सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणों की तारतम्यरूप विकसित अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। यह भी चौदह ही होते हैं - मिथ्यात्व, सासादन (सासन), मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, छद्मस्थ उपशान्त वीतराग, छद्मस्थ क्षीण वीतराग, सयोगकेवली और अयोगकेवली।
जीवसमास- जिन सदृश धर्मों द्वारा अनेक जीवों का संग्रह किया जाये, उन्हें जीव समास कहते हैं। यह भी मुख्यत: चौदह होते हैं - एकेन्द्रिय सूक्ष्म, एकेन्द्रिय बादर, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय सैनी और पञ्चेन्द्रिय असैनी यह