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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५) आचार्य वसुनन्दि में गमनागमन स्वभाव होता है यह त्रस नामकर्म है और इस कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली जीव की पर्याय विशेष को त्रस कहते हैं। ___दो इन्द्रिय नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली जीव की अवस्था विशेष को दो इन्द्रिय जीव कहते हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय आदिक में जानना चाहिये। यह सभी पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो-दो भेद वाले हैं। पुनः पञ्चेन्द्रिय के दो भेद हैं- सैनी और असैनी। जिन जीवों में अपना भला-बुरा सोचने की क्षमता होती है वे सैनी हैं तथा इनसे विपरीत असैनी होते हैं। पुनः सैनी के देव, मनुष्य, तिर्यश्च और नारकी ये चार भेद हैं, इनके भी बहुत प्रभेद हैं तथा असैनी के भी बहुत भेद हैं। . ___ सीप, शङ्ख, शम्बूक, कौंडी, सुनी, आटा एवं चावलों में पड़ने वाला सफेद कीड़ा तथा पेट के कीड़े आदि दो इन्द्रिय हैं। कुन्थु, चींटी, चीटा, कुम्भी, बिच्छू, बीर बहुही, घुनका कीड़ा, तिरुला, खटमल, जुआँ, चीलर आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। भौरा, उड़ने वाले अधिकांश कीड़े, मच्छर, मक्खी, वरें, टिड्डी आदि चार इन्द्रिय जीव हैं। मनुष्य, देव, नारकी, हाथी, घोड़ा, मगर, कछुआ, कुत्ता, हंस, बिल्ली, खरगोश आदि पञ्चेन्द्रिय जीव हैं।।१५।। जीवों की जानकारी के सम्बन्ध में विशेष सूचना आउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण-जीवुवओग' पाण सण्णाहिं। गाऊण जीव दव्यं सहहणं होई - कादव्व।।१५।। अन्वयार्थ- (आउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण-जीवुवओग पाण सण्णाहिं) आयु, कुल, योनि, मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवसमास, उपयोग, प्राण (और) संज्ञा के द्वारा, (जीवदव्य) जीव द्रव्य को, (णाऊण) जानकर, (सहहण) श्रद्धान, (कायव्व) करना चाहिये।।१५।। अर्थ- आयु, कुल, योनि, मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवसमास, प्राण और संज्ञा के द्वारा जीवद्रव्य को जानकर उसका श्रद्धान करना चाहिए। व्याख्या- जीव द्रव्य के सम्बन्ध में विशेष जानने के इच्छक भव्य जीवों को सूचना देते हुए आचार्य कहते हैं कि आयु, कुल, योनि, मार्गणस्थान, गुणस्थान, जीव-समास, उपयोग, प्राण और संज्ञा के द्वारा जीव द्रव्य को विशेष रूप से जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिये। आयु- विवक्षित गति में कर्मोदय से प्राप्त शरीर में रोकने वाले और जीवन के कारणभूत आधार को आयु कहते हैं। आयु मुख्यत: चार प्रकार की होती है- देवायु,
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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