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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४) आचार्य वसुनन्दि) भी वनस्पति जीव प्रसिद्ध है इसके साथ-साथ अन्य चार प्रकार के स्थावरों का अत्यन्त वैज्ञानिक दृष्टि से वर्णन है। इससे सिद्ध होता है कि जैनधर्म केवल प्राचीन नहीं है, परन्तु एक प्रामाणिक वैज्ञानिक धर्म है। विज्ञान में जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान में जो वर्णन है उससे बहुत ही विस्तृत एवं प्रामाणिक वर्णन जैनधर्म में है। वैज्ञानिकों को शोध करने के लिए जैनधर्म का जीवविज्ञान सर्चलाइट के समान कार्य कर सकता है। प्राय: जीव की उत्क्रान्ति एकेन्द्रिय से लेकर द्विन्द्रिय, द्विन्द्रिय से त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय . से चतुरिन्द्रिय, एवं चतुरिन्द्रय से पञ्चेन्द्रिय होती है, परन्तु अनेक जीव सीधे एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय भी बन सकता हैं और पञ्चेन्द्रिय भी जघन्य कार्य के कारण एकेन्द्रिय बन सकता है तथा पञ्चेन्द्रिय आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के माध्यम से भगवान् भी बन सकता है। क्रमिक एक जीव की उत्क्रान्ति की अपेक्षा डारविन का उत्क्रान्त जीव सिद्धान्त कुछ अंश से सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नहीं हैं; क्योंकि वह सम्पूर्ण एक प्रकार जीव जाति परिवर्तित होकर दूसरी उच्च जीव जाति रूप परिणमन करना मानता है। उनके सिद्धान्त के अनुसार उत्क्रान्ति ही उत्क्रान्ति है अवक्रान्ति नहीं है, परन्तु उत्क्रान्ति के साथ-साथ अवक्रान्ति होती है। जीव सम्बन्धी शोध करने के लिये वैज्ञानिकों को गोम्मटसार जीवकाण्ड, धवला सिद्धान्त शास्त्र, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिये।।१३।। त्रस जीवों के भेद वि-ति-चउ-पंचिंदियभेयओ तसा चउव्विहा मुणेयव्या। पज्जत्तियरा सण्णियरभेयओ हुंति बहुभेया।।१४।। अन्वयार्थ- (वि-ति-चउ-पंचिंदियभेयओ) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय (और) पञ्चेन्द्रिय के भेद से, (तसा) त्रस जीव, (चउविहा) चार प्रकार के, (मुणेयव्वा) जानना चाहिये। (ये ही त्रस जीव), (पज्जत्तियरा) पर्याप्तक-अपर्याप्तक (और), (सण्णियरभेयओ) संज्ञी-असंज्ञी (आदिक), (बहुभेया) बहुत भेद (प्रकार), (हुति) होते हैं।।१४।। अर्थ-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय के भेद से त्रसकायिक जीव चार प्रकार के जानना चाहिए। ये ही त्रस जीव पर्याप्त-अपर्याप्त और संज्ञी-असंज्ञी आदिक प्रभेदों से अनेक प्रकार के होते हैं। ___ व्याख्या- त्रस जीवों के मुख्यत: चार भेद हैं - दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीव। जिनके त्रस नामकर्म का उदय हैं वे त्रस है अथवा जिस कर्म के उदय से जीवों
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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