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वसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि) साधारण वनस्पति के इतर निगोद और नित्य निगोद यह दो भेद हैं। जो जीव कभी भी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं कर सकते वह नित्य निगोद है तथा जो जीव निगोद से निकलकर त्रस पर्याय प्राप्त कर पुन: निगोद में गये वे इतर निगोद कहलाते हैं।
जिन जीवों के एक ही शरीर के आश्रय अनन्तानन्त जीव रहते हैं उसे निगोद कहते हैं। निगोदिया जीवों का आहार और श्वाच्छ्वोश्वास एक साथ होता है तथा एक निगोद जीव के मरने पर अनन्त निगोद जीवों का मरण और एक निगोद जीव के उत्पन्न होने पर अनन्त निगोद जीवों की उत्पत्ति होती है। निगोदिया जीव सिद्धों से अनन्त गुणें हैं। सुई के अग्रभाग में बादर निगोद के अनन्त जीव रह सकते हैं तथा सूक्ष्म निगोद तो उनसे भी अनन्त गुणें रह सकते हैं। लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं उतने सूक्ष्म निगोद के गोले हैं। एक-एक गोले में असंख्यात निगोद हैं तथा एक-एक निगोद में पुन: अनन्त जीव हैं। निगोद वाले जीव से कम आयुष्य और किसी जीव का नहीं होता। ये एक श्वास में अठारह बार जन्मते-मरते हैं। ____ लाटी संहिता के अनुसार मूली, अदरख, आलू, गाजर, प्याज, अरबी, रतालू, जमीकन्द, आदि मूल, गण्डरीक के स्कन्ध, पत्ते, दूध और पर्व ये चारों अवयव, आक का दूध, करोर, सरसों आदि के फूल, ईख की गाँठ और उसके आगे का भाग, पाँच उदम्बर फल (बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर और अंजीर) तथा कुमारी पिण्ड (गंवारपाठा), वृक्षों की कोपलें, तथा कुछ वृक्षों की जड़, पत्ते, फूल, फल आदि साधारण होते हैं। इनमें अनन्त जीवों का पिण्ड सतत् विद्यमान रहता है। इनके साथ-साथ सप्रतिष्ठित
वनस्पति भी अभक्ष्य (अखाद्य) है। इस प्रकार यहाँ पर स्थावर कायिकों के अनेक भेदों • में से कुछ भेदों का कथन किया गया है।
आधुनिक विज्ञान केवल पञ्चस्थावर जीव में वनस्पतिकायिक जीव को जीव सिद्ध कर पाया है अन्य चार स्थावर (पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक) को जीव सिद्ध अभी तक नहीं कर पाये हैं। कुछ वनस्पतिकायिक अत्यन्त स्थूल होने के कारण उनको जीव सिद्ध करना सरल हुआ; किन्तु चार स्थावर जीवों के शरीर इतने सूक्ष्म हैं कि उनके एक शरीर को हमें चक्षु अथवा यंत्र के माध्यम से देखना कठिन हो जाता है। उदाहरणस्वरूप एक जल बिन्दु एक जलकायिक जीव नहीं है; किन्तु असंख्यात जलकायिक जीवों का शरीर है, तो विचार करिये कि एक शरीर कितना सूक्ष्म है और उस शरीर में जो जैविक क्रिया होती है उसको वैज्ञानिक लोग अभी तक शोध नहीं कर पाये हैं।
भारत के स्वनाम धन्य वैज्ञानिक डॉ० जगदीशचन्द्र बोस ने सन् १९०६ में वनस्पति में वैज्ञानिक दृष्टि से जीव सिद्ध करके विज्ञान जगत् को चमत्कृत कर दिया, जिससे उन्हें नोबल पारितोषिक मिला, परन्तु जैनधर्म में लिखित रूप से ईसापूर्व से